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25 September 2014

मैं 'देवी' हूँ -1 (नवरात्रि विशेष)

आज से
शुरू हो गया है
उत्सव
गुणगान का
मेरी प्राण प्रतिष्ठा का
बिना यह समझे
बिना यह जाने
कि मिट्टी की
इस देह में
बसे प्राणों का मोल
कहीं ज़्यादा है
मंदिरों मे सजी
मिट्टी की
उस मूरत से
जिसके सोलह श्रंगार
और चेहरे की
कृत्रिम मुस्कुराहट
कहीं टिक भी नहीं सकती
मेरे भीतर के तीखे दर्द
और बाहर की
कोमलता के तराजू पर
मैं
दिखावा नहीं
यथार्थ के आईने में
कुटिल नज़रों के
तेज़ाब से झुलसा
खुद का चेहरा
रोज़ देखती हूँ
मैं देवी हूँ।

~यशवन्त यश©
owo-17092014

10 comments:

  1. जीती जागती देवी को अपमानित करते लोग पत्थर की देवियाँ पूजते हैं..कैसी विडम्बना है यह..

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  2. दिल को मथ देने वाली रचना ... सोचने को विवश करती ...

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  3. Bahut bhaaawpurn rachna Yash ji..... Chand shabd me gahri baat kah di aapne ... Shubhkamnaayein !!

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  4. बहुत भावपूर्ण सटीक प्रस्तुति...

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  5. क्या बात है यश जी। इस रचना की तारीफ करने में क्या बोलू। निःशब्द हु। बेहतरीन

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  6. क्या बात है यश जी. कोई शब्द नहीं है आपकी भावनाओं की तारीफ में. आपने जिस शिद्दत से इसे लिखा है. वो बेहतरीन है. बहुत ही बढ़िया रचना

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  7. बहुत ही बढ़िया

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  8. सजीव का तिरस्कार और निर्जीव की पूजा को दर्शाती सुन्दर रचना !
    नवरात्रि की हार्दीक शुभकामनाएं !
    शुम्भ निशुम्भ बध -भाग ४

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  9. Namah Durge! bahut hi achha, gehri rachna

    shubhkamnayen

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