26 September 2015

सब चारण तैयार हैं......

इधर भी खड़े
कुछ उधर भी खड़े
चरणों में लिपटे पड़े
सब चारण तैयार हैं.... ।

हाथों में स्मृति चिह्न लिए
मुद्रा-प्रशस्ति गिन लिए
गुण, गुड़ शक्कर हो लिए
अंग वस्त्र धारण सरकार हैं .... ।

सब चारण तैयार हैं......

मौन व्रत स्वाभाविक है
अच्छा बुरा मन माफिक है
जो अपने खुद का मालिक है
उस साधारण पर वार हैं .... ।

सब चारण तैयार हैं......।


~यशवन्त यश©

21 September 2015

बस यूं ही.......

न यहाँ ज्ञान है
न विज्ञान है
न साहित्य है
न कविता है
न कहानी है
न कोई विधा है
यहाँ तो बस
कुछ बातें हैं
जो मन में आती हैं
और लिख जाती हैं
दर्ज़ हो जाती हैं
डायरी की तरह
हर आने वाले कल
अपनी याद दिलाने के लिए
यूं ही पलटते हुए
अनकहे ही
कुछ कह जाने के लिए ।

~यशवन्त यश©

17 September 2015

फिलहाल कुछ नहीं

फिलहाल कुछ नहीं
न लिखने को
न कहने को
न सुनने को
फिलहाल तो बस
अपनी धुन में
चलते चलते
किसी राह पर
ठोकर खा कर
गिरते हुए
कभी संभलते हुए
आँखों पर
ज़िद्द की पट्टी बांधे
कुछ सोचता हुआ
कल के बारे में
चलता जा रहा हूँ
उस अनजान
मंज़िल की तरफ
जिसका पता 
फिलहाल कुछ नहीं।

~यशवन्त यश©

14 September 2015

हिंदी और सरकारी पंडागिरी-शशि शेखर ( प्रधान संपादक 'हिंदुस्तान')

पुडुचेरी की सीमा पर स्थित उस होटल से समुद्र थोड़ा दूर था। वहां के मैनेजर का आग्रह था कि हम कुछ देर तट पर जरूर बिताएं, ऐसा निर्जन और अछूता समुद्री किनारा आम पर्यटक स्थलों में दुर्लभ है। हमने राय मान ली और उस ओर चल पड़े। समुद्र तट और होटल के बीच में एक छोटा गांव पड़ता है। हम जब उसे पार कर रहे थे, तो कुछ महिलाओं ने हमारी ओर देखकर कौतूहलपूर्ण इशारे किए और एक छोटी बच्ची परंपरागत वेशभूषा में नजदीक तक चली आई। वे हम अजनबियों के बारे में कुछ जानना चाह रही थीं। मेरी पत्नी रुकी और उस लड़की से पूछने लगी, 'तुम किस क्लास में पढ़ती हो?' उसने हंसते हुए जवाब दिया, 'फोर्थ।' मैं समझ गया कि इन दोनों के बीच संवाद का तंतु अंग्रेजी के ये दो अक्षर हैं। मन में प्रश्न उठा कि क्या भारतीय भाषाएं कभी आपस में बातचीत का जरिया नहीं बनेंगी? 
यह टीस कुछ ही मिनटों में दूर हो गई।

हुआ यह कि उस बच्ची ने इशारे से दूर खड़ी गांव की महिलाओं को पास बुला लिया। पहले तो कुछ देर मेरी पत्नी और वे महिलाएं मुस्कराहटों का आदान-प्रदान करती रहीं, फिर उनमें से किसी ने कुछ पूछा। हमारे पल्ले सिर्फ एक शब्द पड़ा- 'पंजाबी।' हम समझ गए कि वे पूछ रही हैं कि क्या आप लोग पंजाबी हैं? उसके बाद मेरी पत्नी और तमिल महिलाएं कुछ इशारों, तो कुछ शब्दों के जरिए वार्तालाप की कोशिश करती रहीं। दोनों पक्षों के लिए ये लम्हे खासे मनोरंजक थे। तभी मुझे याद आया कि तमिलभाषी इलाकों में कभी हिंदी बोलने वालों की पिटाई कर दी जाती थी। दूर-दराज के उस गांव में शाम धुंधली पड़ रही थी, एक पल को नहीं लगा कि हम खतरे में हैं। 
भाषायी भिन्नता के बावजूद भारतीयता का तंतु हमें जोड़े हुए था।

अगले तीन दिनों में ऐसा बार-बार हुआ। नुक्कड़ की कॉफी शॉप पर, घडि़यालों के अभयारण्य में, साड़ी की दुकानों में या किसी दर्शनीय स्थल पर हमें परायापन महसूस नहीं हुआ। और तो और, एक रेस्टोरेंट में भोजन करते समय श्रीमती जी ने पूछ लिया कि यह सब्जी कैसे बनी है? मैनेजर अंग्रेजी में समझाने लगा, तो उन्होंने कहा कि किसी ऐसे 'शेफ' को बुलाएं, जो हिंदी जानता हो। कुछ देर में हिंदीभाषी सज्जन हाजिर थे। उन्होंने विस्तार से बताया कि दक्षिण भारतीय शाकाहारी भोजन कैसे बनता है? यही नहीं, उन्होंने दिल्ली के बाजार भी बता दिए, जहां ये सब्जियां आसानी से उपलब्ध हैं। 
अब हमारे घर आने वाले अतिथि दक्षिण भारतीय व्यंजन देखकर चकित रह जाते हैं।

लौटते वक्त मेरी पत्नी तमिलनाडु और वहां के लोगों की प्रशंसा के पुल बांध रही थीं। मैंने उन्हें बताया कि किस तरह तीन दशक पहले तब के मद्रास और आज के चेन्नई में मुझ हिंदीभाषी को नफरत की नजरों से देखा गया था। मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था ने जहां कुछ दिक्कतें पैदा की हैं, वहीं बड़ी मात्रा में शिक्षा और रोजगार के दरवाजे देश के नौजवानों के लिए खोल दिए हैं। यही वजह है कि बेंगलुरु, चेन्नई, मदुरै जैसी जगहों पर अब हिंदीभाषियों को अधिक दिक्कत नहीं होती। उत्तर भारत के शहर भी दक्षिण भारतीय नौजवानों को उसी अनुराग से अपनाते हैं। हिंदी का यह कारवां सिर्फ अपने देश में ही नहीं बढ़ रहा।

पिछले साल न्यूयॉर्क के मेनहट्टन में मैंने प्राय: हर जगह हिंदीभाषियों को पाया। इसी तरह, यूरोप के कई मुल्कों में हिंदी में बतियाते लोग देखे जा सकते हैं। दुबई, रूस और इंग्लैंड में तो पहले भी अंग्रेजी बोलने की कम जरूरत पड़ती थी। यह वह समय है, जब हमें सारी दुनिया में फैले हिंदीभाषियों को एक सूत्र में बांधना चाहिए। आधुनिक संचार साधन इसमें बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। फिजी, त्रिनिदाद अथवा मॉरीशस जैसे देशों में बसे भारतवंशी हमें किस उम्मीद से देखते हैं, इसका एक उदाहरण। पिछला विश्व हिंदी सम्मेलन दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में हुआ था। वहां सभा स्थल पर एक पिता-पुत्री से सामना हुआ। वे त्रिनिदाद से आए थे।

लड़की के हाथ में अनगढ़ हिंदी में लिखा एक खत था। उसमें उन्होंने अपील की थी कि हम भी भारत मां की संतानें हैं और अपनी परंपराओं को जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं। हिंदी इसमें बड़ी भूमिका अदा करती है, पर नई पीढ़ी दूर भाग रही है। भारत सरकार क्यों नहीं इस दिशा में कुछ कदम उठाती? मैं देर तक उनसे बात करता रहा। पता चला कि कभी भारतीय वहां जाकर अध्यापन किया करते थे, पर अब वे पद रिक्त पडे़ हैं। जब अमेरिका और अन्य विकसित देशों में रोजगार उपलब्ध हों और साथ ही अपने देश में तरक्की हो रही हो, तो ऐसे में भला कौन वेस्ट इंडीज के इन छोटे देशों में जाना चाहेगा? उनकी पीड़ा थी कि भारत ने भारतवंशियों को भुला दिया।

मैंने विदेश मंत्रालय के आला अधिकारियों से उनकी मुलाकात करवाई, ताकि समस्याओं का समाधान निकल सके, पर नौकरशाहों के रुख से साफ था कि ऐसे कामों में उनकी रुचि नहीं है। उनका यह रवैया समझ से परे है। एक तरफ नई दिल्ली की हुकूमत बरसों से कोशिश कर रही है कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट मिल जाए और इसके लिए एक-एक वोट महत्वपूर्ण है। हिंदी की इसमें बड़ी भूमिका हो सकती है। जिन देशों में भारतीय मूल के लोग हैं, वहां वे अपनी सरकारों पर दबाव बना सकते हैं। सत्तानायकों के स्तर पर छिटपुट ऐसी कोशिशें की जाती रही हैं, परंतु निचले स्तर पर वह गंभीरता नजर नहीं आती। वे क्यों भूल जाते हैं कि सैकड़ों साल पहले जब मौजूदा सभ्यता आकार ले रही थी, तब ऋषियों और बौद्ध भिक्षुओं ने समुद्रों या पर्वतों को लांघकर भारतीयता का प्रचार-प्रसार किया।

जो बंधुआ मजदूर जबरन मॉरीशस अथवा वेस्ट इंडीज के देशों में ले जाए गए, वे भी हमारे सांस्कृतिक दूत साबित हुए।
हिंदी में खुद को जिलाए रखने की अद्भुत क्षमता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण फिजी से प्रकाशित होने वाला साप्ताहिक अखबार शांतिदूत है। इसकी प्रसार संख्या लगभग 13 हजार है। यही नहीं, दुनिया भर के तमाम देशों में अनेक रेडियो स्टेशन, टीवी और यू-ट्यूब चैनल हिंदी का साहित्य और सामग्री लोगों तक पहुंचाते हैं। भाषा विशेषज्ञ जयंती प्रसाद नौटियाल की माने, तो हिंदी ने चीन की मैंडेरिन को पीछे छोड़ दिया है। करीब सात अरब लोगों की इस धरती पर हर छठा आदमी हिंदी समझता है।

साफ है। हिंदी का काफिला आगे बढ़ रहा है, पर क्या उसकी गति संतोषजनक है? यकीनन नहीं। अभी तक हिंदी को बढ़ाने में हिंदीभाषियों की सर्वाधिक भूमिका रही है, न कि उन सरकारी पंडों की, जो करदाताओं के धन पर मौज मार रहे हैं। तमाम मंत्रालयों को करोड़ों रुपये हिंदी के प्रसार और बढ़ोतरी के लिए दिए जाते हैं। भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी प्रदेशों को आंदोलित करने में नाकाम रहा, जबकि इसका मकसद समूचे ग्लोब में हिंदी के प्रति रुचि बढ़ाना है। इसकी जवाबदेही किसकी है? नई दिल्ली के सत्तानायकों के सामने एक चुनौती इस पंडागिरी के खात्मे की भी है। अगली 14 सितंबर यानी हिंदी दिवस को वह इसका संकल्प जगजाहिर करेंगे क्या?  
@shekharkahin 
shashi.shekhar@livehindustan.com
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12 September 2015

हिंदी, बिंदी, चिंदी के आगे की तुक--उर्मिल कुमार थपलियाल (वरिष्ठ व्यंग्यकार एवं रंग कर्मी)

हते हैं कि जिस तरह जातिवाद होता है, उस तरह का जातिवाद साहित्य में नहीं होता। साहित्यकारों में हो सकता है। साहित्य में दलित अब भी ढंग से परिभाषित नहीं हो पाए हैं। इसलिए कभी कहीं न छपने वाले कवि इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं। वैसे भी साहित्य में ब्राह्मण जन्म से नहीं होते, कर्म से होते हैं। मेरे कई मित्रों को मेरी कविताएं समझ में नहीं आतीं। मेरा यह गुण मुझे बुद्धिजीवियों और ऊंचे पाए के जटिल कवियों में शामिल करता है। मुझमें और मुक्तिबोध में अगर कोई फर्क नहीं है, तो मैं क्या कर सकता हूं? इन दिनों गीत, नवगीत व छंदों में लिखने वाले कवि भाजपाई लगने लग पड़े हैं। जब देखो, हिंदी-हिंदी करते रहते हैं। ऐसे ही बहुत को भोपाल के विश्व हिंदी सम्मेलन में न्योता गया है। वे वहीं सरकारी पंगत में बैठे, न बुलाए गए अपने समकालीनों को ठेंगा दिखाकर खा-पी रहे हैं। वहां उनका एक अपना निजी विश्व है। लोकल लोग तो अपना सालाना हिंदी दिवस अगले सोमवार को ही मनाएंगे।

पिछले साल हिंदी दिवस पर मेरे एक हिंदी अध्यापक मित्र को गोष्ठी में बुलाया गया। उनमें कवि के दुर्गुण भी थे। शाम को मेरे घर आए। बोले- मित्र बोलो, कैसा लग रहा हूं। मैंने उनका मुंह सूंघा, गहरा भभका लगा। मैंने कहा- मित्र जाओ, अब तुम गोष्ठी में जाने लायक हो गए हो। उन्होंने कतई बुरा नहीं माना और रिक्शे में लदकर चल दिए। हमारी यूपी में कविता से ज्यादा रुचि पहलवानी में दिखती है। आज की कविता भी तो पाठकों के लिए एक कुश्ती है। हुंकार भरती हुई हर सभा और गोष्ठी में दुनिया को बदल डालने के प्रस्ताव रिन्यू होते रहते हैं। शायद किसी बड़े ने कहा था कि साहित्य, समाज के आगे जलती हुई मशाल है। ताजा सवाल यह है कि आज के मशालची हैं कौन-कौन। किस तुक्कड़ कवि में इतना दम है कि वह हिंदी, सिंधी, बिंदी और फिर चिंदी-चिंदी के आगे का तुक भिड़ा सके। मित्रो, अगर तुम हिंदी नहीं जानते, तो अपनी अंग्रेजी में भी अव्यक्त रहोगे। अपनी भाषा पहचानो, वरना एक दिन वह भी तुम्हें नहीं  पहचान पाएगी।
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साभार-हिंदुस्तान-12/09/2015 

10 September 2015

नज़दीकियाँ खतरनाक होती हैं......

कुछ जाने पहचाने
और अनजाने चेहरों के बीच
किसी अपने को
पहचानने में
अक्सर हो जाती है
छोटी बड़ी भूल
जिसका खामियाजा
आज नहीं
तो कल
देखना ही होता है
इसलिए
बेहतर है
खुद को ही 
अनजान बनाए रखना 
खुद को ही 
दूर बनाए रखना 
क्योंकि 
नज़दीकियाँ 
आज के जमाने में 
खतरनाक होती हैं। 

~यशवन्त यश©

05 September 2015

सुदामा शिक्षकों की जन्माष्टमी में झांकी दर्शन-ऊर्मिल कुमार थपलियाल (वरिष्ठ रंग कर्मी,एवं प्रख्यात व्यंग्यकार)

मुझे याद नहीं कि जन्माष्टमी और शिक्षक दिवस एक साथ कब पड़े थे। इस साल तो एक छुट्टी मारी गई। फर्क क्या पड़ता है? दिन में शिक्षक दिवस। रात में जन्माष्टमी। जन्माष्टमी से याद आया कि शिक्षक दिवस के दिन कोई कृष्ण-सुदामा के गुरु संदीपन को याद क्यों नहीं करता? संदीपन आश्रम एक तरह का हॉस्टल था। कृष्ण अपर क्लास के थे, और सुदामा लोअर। वहां को-एजुकेशन होती, तो राधा भी साथ पढ़ती। कृष्ण तो राजा बनकर द्वारका चले गए, लेकिन सुदामा की परंपरा बनी रही।

खासतौर पर हिंदी का टीचर आज भी विप्र सुदामा जैसा लगता है। उसकी गति क्या होती है, यह आप हिंदी दिवस के दिन देख लेना। सरकारी कृष्ण उन्हें शॉल, नारियल, गुलदस्ता और 51 रुपये नकद देकर घर लौटाएंगे। सुदामा की पत्नी खीझती रहेगी।

कभी मेरे मित्र कवि कुल्हड़ देहरादूनी ने कृष्ण के महल के आगे खड़े सुदामा का चित्रण किया था। द्वारपाल कृष्ण से कहता है कि- महाराज, बाहर एक व्यक्ति खड़ा है। कृष्ण ने पूछा- कौन है, कैसा है? द्वारपाल बोला- खिचड़ी से बाल और छितरी सी दाढ़ी है/ गंदे से कुरते पे ढीलो पजामा/ देखन में कम्युनिस्ट लगे है/ बतावत आपनो नाम सुदामा। ये तत्कालीन समकालीनता थी। कृष्ण तो बदल गए, सुदामा जस के तस। हर पुलिस लाइन में जन्माष्टमी प्रायश्चित के तौर पर मनाई जाती है। इसी दिन जेल के सिपाही ऐन वक्त पर सो गए थे, इसी कारण वासुदेव जी कृष्ण को लेकर फरार हो सके। पुलिस आज तक शर्मसार है।

लेकिन वक्त पर सो जाने का स्वभाव थोड़े ही छूटता है। अब शिक्षा की बात करें। अब तो हाल यह है कि- आधे शिक्षक बैठे अनशन/ बाकी शिक्षक करें प्रदर्शन/ हैरत में हैं राधाकृष्णन/ स्मृति है ईरानी भैया अपने मोदीजी के बूते/ टीचर जी के चरण छोड़कर/ सारे छात्र छू रहे जूते। वैसे आज विचित्र संजोग है। एक तरफ राधा-कृष्ण, दूसरी तरफ राधाकृष्णन। नवीनतम टीप का बंद तो यह है कि कल मेरे बेटे ने पूछा- पापा, अगर शीना बोरा हत्याकांड पर फिल्म बनाई जाए, तो इंद्राणी मुखर्जी के रोल में कौन फिट रहेगा? मैंने तुरंत जवाब दिया- राधे मां।
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स्रोत:-'हिंदुस्तान' -05/09/2015 

02 September 2015

वक़्त के कत्लखाने में -12

वक़्त के कत्लखाने में
यूं ही बैठा बैठा
यही सोचता रहता हूँ
कि आखिर
जगह जगह पसरे पड़े
कूड़े के अनगिनत ढेरों पर
पलता बढ़ता बचपन
क्या कभी  पाएगा
अपना सही मुकाम ?
या बस
स्याही से रंगे पुते
कागज की
कई परतों में सिमटी
'कल्याणकारी' योजनाओं का
बनकर कोई हिस्सा
खुद को पाएगा वहीं
जहां वह पहले से था
सड़क के किसी किनारे
या ऐसे ही
वक़्त के
किसी और
कत्लखाने में।

~यशवन्त यश©