18 June 2012

ओ बादलों !

ओ बादलों !
यहाँ की हरियाली को
उजाड़ कर
कंक्रीट की बस्ती में
अब मुझे इंतज़ार है
तुम्हारे बरसने का

हाँ
मैंने छीना है
तुम्हारा आकर्षण
और 
जो है भी
वो इतनी ऊंचाई पर
तुम देख नहीं सकते

क्योंकि
गमलों मे लगे बोन्साई
तुम से
कुछ कह नहीं सकते

ओ बादलों !
चोरी और सीना जोरी
मेरी स्वाभाविक फितरत है
यह तुम भी समझते हो
फिर भी
क्यों नहीं बरसते हो

चलो
अब ज़्यादा
नखरे मत दिखाओ
जल्दी से आओ
बरस भी जाओ

शायद
तुम्हारे बरसने से
झुलसती धरती के
ज़ख़्मों को
कुछ राहत मिले
और नयी कोंपल देख कर
मैं लूँ सबक
उसे सहेजने का।


©यशवन्त माथुर©

'मैं' और 'मेरी' शब्द -मानव जाति के लिये प्रयोग किए हैं

26 comments:

  1. Hum bhi nahi jante...humne jane anjane prakrati ko kitna nuksan pohchaya he....

    ReplyDelete
  2. इन्ही बादलों का इंतज़ार हैं

    ReplyDelete
  3. अब तो इन्हें जरुर बरसना होगा... शुभकामनायें

    ReplyDelete
  4. अब तो बरस ही जाओ..धरती प्यासी तुम्हें ताकती

    ReplyDelete
  5. वाह: बहुत सुन्दर रचना..जी..

    ReplyDelete
  6. बहुत ही सुन्दर और भाव पूर्ण रचना |

    ReplyDelete
  7. शायद
    तुम्हारे बरसने से
    झुलसती धरती के
    ज़ख़्मों को
    कुछ राहत मिले
    और नयी कोंपल देख कर
    मैं लूँ सबक
    उसे सहेजने का।

    बहुत सुंदर .... अब सहेजना न समझे तो परिणाम बड़े घातक ही होंगें

    ReplyDelete
  8. काश अब भी कुछ सबक सीख सकें .... बहुत सुंदर और सार्थक रचना

    ReplyDelete
  9. और नयी कोंपल देख कर
    मैं लूँ सबक
    उसे सहेजने का।
    अब नहीं चेते तो परिणाम बड़े खतरनाक होंगें .... !!
    सार्थक रचना की सुन्दर अभिव्यक्ति .... :))

    ReplyDelete
  10. नयी कोंपल देख कर
    मैं लूँ सबक
    उसे सहेजने का।

    सहेजना आवश्यक है...अगली पीढ़ी के लिए !!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. really... we the culprit ... todestroy greenness... that attracts rain... we turned this green land into concrete... pillars... now for why ... rain will come... a unique post /

      Delete
  11. सार्थक अभिव्यक्ति..

    ReplyDelete
  12. यक़ीनन , तुम्हारे बरसने से
    झुलसती धरती के
    ज़ख़्मों को
    कुछ राहत मिलेगी,बहुत सुन्दर...

    ReplyDelete
  13. सार्थक सुन्दर रचना ... बधाई
    बदरी छा गई है
    बारिश आ गई है

    ReplyDelete
  14. बहुत सुन्दर यशवंत...

    सस्नेह.

    ReplyDelete
  15. वाह ... बहुत बढिया

    कल 20/06/2012 को आपकी इस पोस्‍ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.

    आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


    बहुत मुश्किल सा दौर है ये

    ReplyDelete
  16. सूखी ज़मीन पर फिर से हरियाली आएगी ।

    ReplyDelete
  17. बहुत सुंदर...इसीलिए मानसून आ गया !!

    ReplyDelete
  18. waah ...sundar shikayat ...ab aap rooth gaye hain ...baadal manaa hii lenge ....!!
    sundar rachna .
    shubhakaamanaayen.

    ReplyDelete
  19. कंक्रीट की बस्ती में
    अब मुझे इंतज़ार है
    तुम्हारे बरसने का

    भावनाओं का बहुत सुंदर चित्रण ....

    ReplyDelete
  20. ओ बादलों !
    यहाँ की हरियाली को
    उजाड़ कर
    कंक्रीट की बस्ती में
    अब मुझे इंतज़ार है
    तुम्हारे बरसने का - bahut sundar

    ReplyDelete
  21. बरस जा ए बदल बरस जा....
    सुन्दर रचना...
    :-)

    ReplyDelete
  22. इंसान बहुत खुदगर्ज़ जीव है इतनी आसानी से सबक लेने वाला नहीं...

    ReplyDelete
  23. और नयी कोंपल देख कर
    मैं लूँ सबक
    उसे सहेजने का।
    ..ATI SUNDAR....

    ReplyDelete