09 January 2013

अभावों के भाव

अभावों के भाव
इसी मौसम में बढ़ते हैं
जब ‘नाम’ की उम्मीद में भाव
दर दर भटकते हैं

कहीं कंबल ऊनी
कहीं कागजी दुशाले हैं किस्मत में
रैन बसेरों में
सीले अलाव भी ठिठुरते हैं

हैं वो ही ‘यशवंत’
जो बंद कमरों में बैठ कर
आरंभ से अंत तक
बेतुकी लिखा करते हैं

अभावों के भाव
इसी मौसम में बढ़ते हैं
जब भरी धूप में भाव
बर्फ से जमते हैं ।
©यशवन्त माथुर©

12 comments:

  1. अभावों के भाव
    इसी मौसम में बढ़ते हैं
    जब भरी धूप में भाव
    बर्फ से जमते हैं ।
    सच्चाई !!

    शुभकामनायें !!

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  2. "बेतुकी" ही सही लेकिन लिखते रहिये यशवंत भाई. हो पानी या मन के भाव , दोनों का बहना जरूरी है.शुभकामनाएं.

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  3. हैं वो ही ‘यशवंत’
    जो बंद कमरों में बैठ कर
    आरंभ से अंत तक
    बेतुकी लिखा करते हैं
    मजेदार पंक्तियाँ.....वाकई तुक कभी गर मिला नहीं
    तो सारा लिखा व्यर्थ हो जाता है

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  4. मधुर भाव लिये भावुक करती रचना,बहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति

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  5. अभावों के भाव
    इसी मौसम में बढ़ते हैं
    जब भरी धूप में भाव
    बर्फ से जमते हैं ।

    आज कल सबकी संवेदनाएं जमी हुई हैं ... सुंदर और गहन भाव लिए हुये अच्छी रचना

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  6. बढ़िया है-
    बधाई यशवंत ||

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  7. हैं वो ही ‘यशवंत’
    जो बंद कमरों में बैठ कर
    आरंभ से अंत तक
    बेतुकी लिखा करते हैं ..

    क्या बात है यशवंत जी ... बहुत खूब ...

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  8. क्या कहे और किससे कहें हम जब मंदिर में भगवान गरम कपड़ों में होते हैं, और वहीँ द्वार पर कई ठण्ड से मरते हैं ... मार्मिक प्रस्तुति... शुभकामनायें

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  9. ‘नाम’ की उम्मीद में भाव
    दर दर भटकते हैं,... सच,..और सुन्दर

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  10. सुंदर, सटीक पंक्तियाँ

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  11. sahi kaha aapne...jab esi sardi me chhote chhote bacchho ko thiturta dekhti hu to dil bhar aata h mera bhi....

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  12. मेल पर प्राप्त टिप्पणी -
    indira mukhopadhyay


    ' अभावों के भाव
    इसी मौसम में बढ़ते हैं.....................' बहुत सुन्दर यशवंत।

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