17 March 2013

क्षणिका

किताबों के रंगीन
पन्नों के भीतर
छुपी कालिख
सिर्फ स्याही 
मे ही नहीं होती
पन्नों के सुर्ख रंग
कभी कभी
मुखौटा भी
हुआ करते हैं। 
~यशवन्त माथुर©

7 comments:

  1. वाह ! गहरी बात सादगी से !!
    शुभकामनायें !

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  2. अक्सर मुखौटे अपनी पहचान भूल जाते है यशवंत जी

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  3. सुंदर और भावपूर्ण आज के जीवन संदर्भ में कहती हुई रचना
    बधाई-------

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में सम्मलित हों,प्रतिक्रिया दें
    jyoti-khare.blogspot.in

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  4. बहुत सुद्नर आभार अपने अपने अंतर मन भाव को शब्दों में ढाल दिया

    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
    एक शाम तो उधार दो

    आप भी मेरे ब्लाग का अनुसरण करे

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  5. पन्नों के सुर्ख रंग
    कभी कभी
    मुखौटा भी
    हुआ करते हैं।
    सच ,कभी कभी गहराई से झांके तो. .....अच्छी रचना

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  6. पन्नों के सुर्ख रंग
    कभी कभी
    मुखौटा भी
    हुआ करते हैं।

    bilkul sahi kaha. achhe sachche bhaav

    shubhkamnayen

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