नया नहीं
दीवारों
और दरारों का साथ
दीवारे
ईंटों की भी होती हैं
और
रिश्तों की भी
कुछ ऊंची होती हैं
कुछ नीची होती हैं
और कुछ
कर रही होती हैं
नींव के
रखे जाने का
इंतज़ार
वक़्त के साथ
या लापरवाही से
गलतफहमी के
उफनने से
नींव के दरकने से
भूकंप से
दरारें पड़ ही जाती हैं
ईंटों की दीवारें
गिर ही जाती हैं
रिश्तों की दीवारें
उठ ही जाती हैं
और एक बार
जब हो जाता है ध्वंस
तब होता नहीं आसान
नयी बुनियाद का
अस्तित्व।
~यशवन्त माथुर©
बहुत सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति मोदी संस्कृति:न भारतीय न भाजपाई . .महिला ब्लोगर्स के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MAN
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..
ReplyDeleteऔर एक बार
ReplyDeleteजब हो जाता है ध्वंस
तब होता नहीं आसान
नयी बुनियाद का
अस्तित्व।-----वाह बहुत सुंदर जीवन से जुडी रचना
बधाई
बहुत खूबसूरती से व्यक्त किया है आपने यशवंत भाई.
ReplyDeleteजनाब मैं तो कहता हूँ दीवारें होती ही क्यों है | बहुत सुन्दर रचना | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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sahi baat ko kavyatmak roop diya hai.. achhi rachna
ReplyDeleteshubhkamnayen
सुन्दर रचना...
ReplyDeleteजीवन से जुड़ी हुई...
रिश्तों के टूटने बिखरने को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया है..
ReplyDelete;-)