जिसे लोग समझते हैं
सशक्तिकरण
क्या वही सही है ?
घर की चौखट के बाहर
दिन के उजालों मे
रातों की चकाचौंध में
अंधेरे रास्तों से
गुज़रती
कभी पैदल चलती
कभी मोटर मे दौड़ती
हर वामा
भीतर ही भीतर
समाए रहती है
एक डर
एक दर्द
क्या पहुँच भी पाएगी
अपनी मंज़िल पर ?
किताबों में
यूं तो उसे कहा गया है
देवी और पूजनीय
उसके कदमों को
माना गया है
शुभ -लाभ
फिर भी
सिहरता रहता है
उसका मन
डोलता रहता है
उसका विश्वास ....
यहाँ कदम दर कदम
उसके 'अपनों' की नज़रें
'गैर' नजरों जैसी लगती हैं
'दृष्टि दोष' पीड़ित दुर्योधन
अपनी आँखों मे
तैरते लाल डोरों को
छुपाने के लिए
'सम्मान' का
चश्मा लगा कर
हर दिन
करते रहते हैं
उसका चीरहरण
और वह बचते बचाते
जब सोती है
गहरी नींद मे
तब बीते दिन के सपने
उसे कर देते हैं
बेचैन ....
वह
नहीं चाहती
'निर्भया'
या 'दामिनी' कहलाना
वह जीना चाहती है
अपने इसी अस्तित्व के साथ
अपनी इसी काया के साथ
जिसकी हर छाया में
उसका वामा रूप
कराता रहे एहसास
दिलाता रहे विश्वास
कि
'सशक्तिकरण'
होता है
सिर्फ
समाज की सोच
बदलने से .....
पर
क्या
यह सोच
बदली है ???
या बदलेगी ????
आखिर कब ?
आखिर कब तक ????
~यशवन्त यश©
सशक्तिकरण
क्या वही सही है ?
घर की चौखट के बाहर
दिन के उजालों मे
रातों की चकाचौंध में
अंधेरे रास्तों से
गुज़रती
कभी पैदल चलती
कभी मोटर मे दौड़ती
हर वामा
भीतर ही भीतर
समाए रहती है
एक डर
एक दर्द
क्या पहुँच भी पाएगी
अपनी मंज़िल पर ?
किताबों में
यूं तो उसे कहा गया है
देवी और पूजनीय
उसके कदमों को
माना गया है
शुभ -लाभ
फिर भी
सिहरता रहता है
उसका मन
डोलता रहता है
उसका विश्वास ....
यहाँ कदम दर कदम
उसके 'अपनों' की नज़रें
'गैर' नजरों जैसी लगती हैं
'दृष्टि दोष' पीड़ित दुर्योधन
अपनी आँखों मे
तैरते लाल डोरों को
छुपाने के लिए
'सम्मान' का
चश्मा लगा कर
हर दिन
करते रहते हैं
उसका चीरहरण
और वह बचते बचाते
जब सोती है
गहरी नींद मे
तब बीते दिन के सपने
उसे कर देते हैं
बेचैन ....
वह
नहीं चाहती
'निर्भया'
या 'दामिनी' कहलाना
वह जीना चाहती है
अपने इसी अस्तित्व के साथ
अपनी इसी काया के साथ
जिसकी हर छाया में
उसका वामा रूप
कराता रहे एहसास
दिलाता रहे विश्वास
कि
'सशक्तिकरण'
होता है
सिर्फ
समाज की सोच
बदलने से .....
पर
क्या
यह सोच
बदली है ???
या बदलेगी ????
आखिर कब ?
आखिर कब तक ????
~यशवन्त यश©
बहुत उत्कृष्ट और सटीक अभिव्यक्ति..
ReplyDeletespeechless .....
ReplyDeleteबहुत सक्षम कविता
ReplyDeleteसमाज की सोच बदल रही है..आवाज उठाते रहिये
ReplyDeleteगहन चिंतन के लिये मन को उद्वेलित करती सशक्त रचना ! बहुत खूब !
ReplyDeleteगहन चिंतन के लिये मन को उद्वेलित करती सशक्त रचना ! बहुत खूब !
ReplyDeleteसटीक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसत्य कहा आपने। शुभता जो जड़ कट दिया गया है। समाज पतन की तरफ जा रहा है
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना।
ReplyDeleteन जाने कब तक
ReplyDeleteBilkul sahi kah rahe hain aap....behtareen lekh...
ReplyDeleteशायद राक्षशी सोच कभी नहीं बदलेगी , जब तक प्रत्येक व्यक्ति घर से बाहर नहीं आयेगा इस सब के खिलाफ . सामयिक कविता
ReplyDeleteवाकई कब तक ?
ReplyDeleteसार्थक विचारो को आगे बढाती अभिव्यक्ति. बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDelete