वक्त के कत्लखाने में
तन्हा बैठे बैठे
खुद की कुछ सुनते
खुद से कुछ कहते
कुछ बातें करते करते
कभी कभी
डूब जाता हूँ
एक सीमा में सिमटे
अँधियारे समुद्र की
उन गहरी लहरों में
जहां से
इच्छा नहीं होती
वापस आने की
फिर भी
आना होता है
देखने को
बदलाव की तस्वीर
लेकिन हर बार
दीवार पर
टंगे आईने में
मुझे दिखती है
वही पुरानी कालिख
अपने चेहरे पर
जो
सैकड़ों जन्मों के बाद भी
नहीं बदली
और शायद
कभी नहीं बदलेगी
क्योंकि
यही तो पहचान है
हर उस मुखौटे की
जो सदियों से
बिना सांस लिये
यूं ही बैठा है
वक्त के कत्लखाने में।
~यशवन्त यश©
तन्हा बैठे बैठे
खुद की कुछ सुनते
खुद से कुछ कहते
कुछ बातें करते करते
कभी कभी
डूब जाता हूँ
एक सीमा में सिमटे
अँधियारे समुद्र की
उन गहरी लहरों में
जहां से
इच्छा नहीं होती
वापस आने की
फिर भी
आना होता है
देखने को
बदलाव की तस्वीर
लेकिन हर बार
दीवार पर
टंगे आईने में
मुझे दिखती है
वही पुरानी कालिख
अपने चेहरे पर
जो
सैकड़ों जन्मों के बाद भी
नहीं बदली
और शायद
कभी नहीं बदलेगी
क्योंकि
यही तो पहचान है
हर उस मुखौटे की
जो सदियों से
बिना सांस लिये
यूं ही बैठा है
वक्त के कत्लखाने में।
~यशवन्त यश©
No comments:
Post a Comment