18 March 2015

मैं कुछ भी नहीं

यूं ही
मन के भीतर की
अनकही बातें
कागज़ के पन्नों से
कह कर
कर लेता हूँ शांत
कहीं धधकती
जज़्बातों की लपटों को
जो बेचैनी में
हो उठती हैं
और ज्यादा उग्र
जब नहीं होता कोई भी
कहीं आसपास 
कुछ सुनने को
तब
लिखने को 
चुनता हूँ
वही कुछ पुराने शब्द
जो दोहराते हैं
खुद को
हमेशा की तरह
नये अंदाज़ में
बिखर कर
छिटक कर
अर्थ
और अनर्थ का
तमाशा बनते हुए
चढ़ा देते हैं मुझे
औरों की नज़रों में
कहीं ऊपर
जबकि
शून्य के
धरातल पर भी
मैं कहीं
कुछ भी नहीं। 

~यशवन्त यश©

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