हे
मेरे प्रिय, सुहृद, सरस्वती मां के वरद पुत्रो! हे साहित्य के मंदिर के
जन्मजात पुजारियो! हे कविता का नाम सुनते ही रोमांचित हो खंजड़ी बजाने वाले
खंजड़ियो और मिरदंगियो! हे तुच्छता से आपूर्ण इस युग के कवि कोविदो! हे
साहित्यानुराग के मारे साहित्य रोगियो! हे पुस्तक से पुस्तक के लिए पुस्तक
द्वारा आध्यात्मिक प्रीति रखने वाले प्रीतमो! इन उपाधियों से आप तनिक भी
चकित न हों और इस नीच परम पामर से जरा-सा भी नाराज न हों, क्योंकि साहित्य
की यह बोली उसकी लगाई नहीं है। न यह किसी साहित्यद्रोही का षड्यंत्र है, न
यह सीआईए की साजिश है, न नई सरकार की कोई नई बदमाशी है, और न संघ की
साहित्य के प्रति बदसलूकी है, बल्कि यह अंग्रेजी के एक सेक्युलर और
स्वतंत्र अखबार में छपी खबर भर है, जो साहित्य को जनता की जेब तक सीधे
पहुंचा रही है और साहित्य को सबके लिए उपलब्ध करा रही है।
हे साथी, ऐसा क्यों हो रहा है? इसका समाजशास्त्रीय व अर्थशास्त्रीय कारण क्या है? क्या यह मंदी का असर है या बजट का? हे कॉमरेड! जिस तरह सोवियत संघ के पतन के बाद सोवियत साहित्य बीस रुपये किलो के भाव तौल में मिला करता था, उसी तरह साहित्य अब तौल के भाव मिल रहा है। बतर्ज ‘मैंने लियो तराजू तोल।’ साहित्य को दो सौ रुपये किलो के भाव से बिकता देख मुझे इस उत्तर-समाजवादी समय में भी समाजवादी किस्म का दौरा पड़ गया। सोवियत संघ जो पुण्य कार्य जीते जी नहीं कर पाया, जिसे चे ग्वेरा के सौजन्य वाला फिदेल कास्त्रो निर्मित समाजवाद भी नहीं कर पाया, वियतनामी समाजवाद भी नहीं कर सका, न नेहरू का ‘अवार्डी समाजवाद’ कर पाया, चीनी समाजवाद नहीं कर पाया, उसे दरियागंज के एक मामूली किताब बेचने वाले ने कर दिखाया।
किताब पढ़ने वाले को तौलकर खरीदने की समझ दरियांगज के पटरी विक्रेता से मिल रही है। यों तो किताबों की दुनिया में पहले भी ‘सस्ता साहित्य’ टाइप के ‘भंडार’ बने, कहीं ‘मंडल’ बने, लेकिन तौलकर तो उन तक ने भी न बेचा। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या साहित्य सचमुच सस्ता हो गया है? क्या उसकी नई सेल लगी है? क्या साहित्य पर अमेरिकी मंदी की मार अब जाकर पड़ी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि रुपये के कमजोर होने के कारण ऐसा हो रहा हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह साहित्य का चीनी फैक्टरी उत्पादित फैक्टर है? जिस तरह चीनी समाजवाद ने दिवाली-होली पर हिंदू देवी-देवताओं की प्लास्टिक की मूर्तियां बना-बनाकर हिन्दुस्तानी मार्केट को पाट दिया है और अब ये कुंतल के हिसाब से मिलते हैं, कहीं उसी तरह का व्यवहार चीनी इंडस्ट्री साहित्य के साथ तो नहीं कर रही? शायद नहीं।
साहित्य के थोक के भाव मिलने का कारण अपनी ‘लोकार्पण इंडस्ट्री’ है। अभी-अभी तीन साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ी हैं, जिनके पिछवाड़े के पृष्ठों पर कुल 30 लोकार्पण हुए शोभित पड़े हैं। साहित्यमय भारत के चार हजार कस्बों व नगरों में हर महीने अगर 10-15 लोकार्पण भी होते हों, तो बताइए कि कुल कितने ‘टन’ साहित्य पैदा होता होगा? शायद इसीलिए दरियागंज का विक्रेता ‘लोकार्पित आइटमों’ को दस रुपये किलो के भाव खरीदकर दौ सौ रुपये किलो बेचता है। लोकार्पकों ने तो साहित्य का भाव गिराने में कोई कसर छोड़ी नहीं है, जबकि दरियागंज वाला विक्रेता दो सौ रुपये की दर लगाकर साहित्य का भाव बढ़ा ही रहा है। उसका कुछ तो एहसानमंद होना चाहिए।
साभार -'रविवासरीय हिंदुस्तान'
हे साथी, ऐसा क्यों हो रहा है? इसका समाजशास्त्रीय व अर्थशास्त्रीय कारण क्या है? क्या यह मंदी का असर है या बजट का? हे कॉमरेड! जिस तरह सोवियत संघ के पतन के बाद सोवियत साहित्य बीस रुपये किलो के भाव तौल में मिला करता था, उसी तरह साहित्य अब तौल के भाव मिल रहा है। बतर्ज ‘मैंने लियो तराजू तोल।’ साहित्य को दो सौ रुपये किलो के भाव से बिकता देख मुझे इस उत्तर-समाजवादी समय में भी समाजवादी किस्म का दौरा पड़ गया। सोवियत संघ जो पुण्य कार्य जीते जी नहीं कर पाया, जिसे चे ग्वेरा के सौजन्य वाला फिदेल कास्त्रो निर्मित समाजवाद भी नहीं कर पाया, वियतनामी समाजवाद भी नहीं कर सका, न नेहरू का ‘अवार्डी समाजवाद’ कर पाया, चीनी समाजवाद नहीं कर पाया, उसे दरियागंज के एक मामूली किताब बेचने वाले ने कर दिखाया।
किताब पढ़ने वाले को तौलकर खरीदने की समझ दरियांगज के पटरी विक्रेता से मिल रही है। यों तो किताबों की दुनिया में पहले भी ‘सस्ता साहित्य’ टाइप के ‘भंडार’ बने, कहीं ‘मंडल’ बने, लेकिन तौलकर तो उन तक ने भी न बेचा। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या साहित्य सचमुच सस्ता हो गया है? क्या उसकी नई सेल लगी है? क्या साहित्य पर अमेरिकी मंदी की मार अब जाकर पड़ी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि रुपये के कमजोर होने के कारण ऐसा हो रहा हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह साहित्य का चीनी फैक्टरी उत्पादित फैक्टर है? जिस तरह चीनी समाजवाद ने दिवाली-होली पर हिंदू देवी-देवताओं की प्लास्टिक की मूर्तियां बना-बनाकर हिन्दुस्तानी मार्केट को पाट दिया है और अब ये कुंतल के हिसाब से मिलते हैं, कहीं उसी तरह का व्यवहार चीनी इंडस्ट्री साहित्य के साथ तो नहीं कर रही? शायद नहीं।
साहित्य के थोक के भाव मिलने का कारण अपनी ‘लोकार्पण इंडस्ट्री’ है। अभी-अभी तीन साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ी हैं, जिनके पिछवाड़े के पृष्ठों पर कुल 30 लोकार्पण हुए शोभित पड़े हैं। साहित्यमय भारत के चार हजार कस्बों व नगरों में हर महीने अगर 10-15 लोकार्पण भी होते हों, तो बताइए कि कुल कितने ‘टन’ साहित्य पैदा होता होगा? शायद इसीलिए दरियागंज का विक्रेता ‘लोकार्पित आइटमों’ को दस रुपये किलो के भाव खरीदकर दौ सौ रुपये किलो बेचता है। लोकार्पकों ने तो साहित्य का भाव गिराने में कोई कसर छोड़ी नहीं है, जबकि दरियागंज वाला विक्रेता दो सौ रुपये की दर लगाकर साहित्य का भाव बढ़ा ही रहा है। उसका कुछ तो एहसानमंद होना चाहिए।
साभार -'रविवासरीय हिंदुस्तान'
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