ग्रीस के आर्थिक संकट को लेकर चिंता की लकीरें पूरी दुनिया में दिखाई
पड़ी हैं। भारत पर इसका बहुत ज्यादा असर शायद न पड़े, लेकिन ग्रीस के इस संकट
में बहुत सारे सबक जरूर हैं, जिनमें भारत ही नहीं, दुनिया के तमाम देशों
के पास सीखने लायक बहुत कुछ है। लेकिन इन बातों पर आने से पहले हमें ग्रीस
के आर्थिक संकट को समझना होगा।
ऐसा बहुत कम होता है कि कोई संप्रभुता प्राप्त देश ही दिवालिया हो जाए, ग्रीस के साथ इस समय यही हुआ है। यह ऐसा संकट है, जिसके लक्षण वहां 2008 के आस-पास दिखने लग गए थे। इसके कारण तो और भी पुराने हैं। यह संकट बरसों से संचित हो रही सरकारी बजट की गड़बड़ियों और ग्रीस के आंतरिक भ्रष्टाचार का भी नतीजा है। लेकिन इसका एक बड़ा कारण ग्रीस के यूरोपीय संघ और यूरो मुद्रा को अपनाने की वजह से है। किसी भी देश के पास जब अपनी मुद्रा होती है, तो उसके पास इसे नियंत्रित करने के कई अधिकार भी होते हैं। वह चाहे, तो निर्यात बढ़ाने और ज्यादा लोगों को रोजगार देने की रणनीति के तहत अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर सकता है। वह चाहे, तो अपनी जरूरत के हिसाब से मुद्रा की आपूर्ति को घटा या बढ़ा भी सकता है। वह अपने बाजार और अपनी अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने के लिए कई फैसले ले सकता है। ग्रीस ने जब यूरो मुद्रा को अपनाया, तो उसकी यह आजादी अपने आप खत्म हो गई। वह अब यूरो पर असर दिखाने वाला कोई फैसला नहीं ले सकता। ग्रीस के आर्थिक संकट के कारण कई हो सकते हैं, लेकिन ग्रीस का यूरो जोन में शामिल होना संकट-समाधान के उसके कई रास्ते खत्म कर देता है।
बेशक, यूरो अभी दुनिया की एक बहुत मजबूत मुद्रा है, यह मजबूती जर्मनी और फ्रांस की वजह से है। अगर यूरो मुद्रा न शुरू हुई होती, तो भी जर्मनी और फ्रांस यूरोप की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्थाओं में रहते, उनकी इस मजबूती में शायद यूरो की भूमिका उतनी बड़ी नहीं है। लेकिन बाकी देशों को यूरो ने किसी न किसी तरह नुकसान पहुंचाया है। ग्रीस का संकट हम देख ही रहे हैं, पुर्तगाल और आयरलैंड जैसे देशों में इतना बड़ा संकट नहीं है, लेकिन समस्या वहां भी बनी हुई है। आर्थिक परेशानियां यूरो जोन के अन्य देशों में भी उभर रही हैं। इसके मुकाबले यूरोप के जो देश यूरो जोन में शामिल नहीं हुए, उनके लिए समस्या इतनी बड़ी नहीं है।
सात साल पहले, जब ग्रीस में संकट के लक्षण पहली बार दिखे थे, तो यूरोपीय आयोग, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने मिलकर उसे संकट से उबारने का एक पैकेज तैयार किया था। ऐसी संस्थाएं जब कर्ज देती हैं, तो कई तरह की शर्तें लगाती हैं, जैसे वित्तीय घाटे को तेजी से कम करना होगा, वगैरह। भारत पर जब आर्थिक संकट आया था, तो उसे भी ऐसी शर्तों पर कर्ज मिला था। इन संस्थाओं की शर्तों को पूरा करने के लिए जरूरी था कि ग्रीस सरकारी खर्चे में तेजी से कटौती करे। यह कटौती की भी गई, लेकिन इससे कोई मदद मिलने की बजाय संकट और गहरा गया। सरकारी खर्चों में कटौती से दो नुकसान एकदम सीधे हुए- एक तो इससे बेरोजगारी बढ़ गई और दूसरे, इससे जनता को मिलने वाली सुविधाएं एकदम से कम हो गईं। इन सबसे असंतोष बढ़ गया। इस बीच नया निवेश कहीं से नहीं हुआ और अर्थव्यवस्था का विकास नहीं हो सका। कर्ज बढ़ता गया, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद, यानी जीडीपी में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई। इसी के चलते अपने इतिहास पर गर्व करने वाला यूरोप का यह देश दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया है। वहां ज्यादातर बैंक इन दिनों बंद चल रहे हैं। बैंकों में जमा धन निकालने तक पर पाबंदी लगा दी गई है।
इस बीच ग्रीस की सत्ता में ऐसा वामपंथी दल पहुंच चुका है, जो यह मानता है कि सरकारी खर्चों में कटौती वापस ली जानी चाहिए। साथ ही, वह इस मुद्दे पर जनमत-संग्रह की बात भी करता रहा है कि क्या ग्रीस को यूरो जोन से अलग हो जाना चाहिए? इस बीच, वहां यह सोच भी जोर पकड़ रही है कि ग्रीस अगर यूरो जोन में शामिल नहीं होता, तो शायद वह संकट से उबरने के ज्यादा अच्छे फैसले कर सकता था। कम से कम वह मुद्रा-आपूर्ति को नियंत्रित कर सकता था, निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिए योजनाएं बना सकता था, नए निवेश को आमंत्रित करने के रास्ते बना सकता था।
अगर ग्रीस यूरो जोन से अलग हो जाता है, तो क्या होगा? बेशक, यह बहुत आसान नहीं है और इससे ग्रीस की सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी, यह भी नहीं कहा जा सकता। यूरो जोन से अलग होने के बाद ग्रीस को आत्म-निर्भर बनने की कठिन कवायद करनी होगी। और शुरू में इस अलगाव का एक झटका शायद पूरी दुनिया और खासकर यूरोप की अर्थव्यवस्था को भी लगेगा। लेकिन दीर्घकाल के हिसाब से देखा जाए, तो शायद यह सबके लिए अच्छा ही हो।
सोमवार को जब इस संकट के गहरा जाने की खबर आई, तो भारत के शेयर बाजारों में शेयर कीमतें अचानक ही लुढ़कने लगीं। तकरीबन, सभी तरह के शेयर सूचकांकों ने गोता लगाना शुरू कर दिया। हालांकि, शाम होते-होते बाजार थोड़ा संभल गया और मंगलवार को ग्रीस संकट से उपजी निराशा नदारद होती दिखाई दी। कारोबार के तौर पर भारत यूरो जोन से जुड़ा हुआ है, लेकिन भारत का ज्यादा कारोबार जर्मनी और फ्रांस से ही है। ग्रीस से भारत का ज्यादा व्यापार नहीं है, इसलिए बहुत सीधा और बहुत ज्यादा असर पड़ने का खतरा नहीं है। यूरो अगर टूटता है, तो इसका असर हो सकता है, लेकिन वह भी बहुत ज्यादा नहीं होगा। दूसरे, पिछली वैश्विक आर्थिक मंदी के मुकाबले इस बार भारत ज्यादा अच्छी स्थिति में है। भारत का वित्तीय घाटा कम हुआ है, विकास दर की संभावनाएं बढ़ी हैं, मुद्रास्फीति कम है और ब्याज दरें भी नीचे आ रही हैं। इसलिए हो सकता है कि भारत को इस संकट से कुछ फायदा ही मिल जाए। यूरोप के संकट को देखते हुए कई निवेशक भारत का रुख कर सकते हैं, क्योंकि भारत का बाजार इस समय ज्यादा स्थिर है और यहां संभावनाएं भी ज्यादा हैं।
इसी के साथ हमें ग्रीस संकट से यह सबक भी ले लेना चाहिए कि मजबूत वित्तीय नीतियों का कोई विकल्प नहीं है। और यह मजबूती पूरे देश में समान रूप से दिखनी चाहिए। आम तौर पर हम जब वित्तीय स्थिरता की बात करते हैं, तो सिर्फ केंद्र सरकार की नीतियों को ही देखते हैं। लेकिन पूरे देश की आर्थिक स्थिति का आकलन करने के लिए हमें इसमें राज्यों की अर्थव्यवस्था और उनकी नीतियों को भी शामिल कर लेना चाहिए। केंद्र के पैमाने पर आर्थिक स्थिरता का अर्थ यह नहीं है कि राज्यों के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। कई राज्यों में स्थिति काफी खराब है। स्थिरता के लिए पूरे देश का आंतरिक विकास जरूरी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
साभार-'हिंदुस्तान' 01/जुलाई/2015
ऐसा बहुत कम होता है कि कोई संप्रभुता प्राप्त देश ही दिवालिया हो जाए, ग्रीस के साथ इस समय यही हुआ है। यह ऐसा संकट है, जिसके लक्षण वहां 2008 के आस-पास दिखने लग गए थे। इसके कारण तो और भी पुराने हैं। यह संकट बरसों से संचित हो रही सरकारी बजट की गड़बड़ियों और ग्रीस के आंतरिक भ्रष्टाचार का भी नतीजा है। लेकिन इसका एक बड़ा कारण ग्रीस के यूरोपीय संघ और यूरो मुद्रा को अपनाने की वजह से है। किसी भी देश के पास जब अपनी मुद्रा होती है, तो उसके पास इसे नियंत्रित करने के कई अधिकार भी होते हैं। वह चाहे, तो निर्यात बढ़ाने और ज्यादा लोगों को रोजगार देने की रणनीति के तहत अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर सकता है। वह चाहे, तो अपनी जरूरत के हिसाब से मुद्रा की आपूर्ति को घटा या बढ़ा भी सकता है। वह अपने बाजार और अपनी अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने के लिए कई फैसले ले सकता है। ग्रीस ने जब यूरो मुद्रा को अपनाया, तो उसकी यह आजादी अपने आप खत्म हो गई। वह अब यूरो पर असर दिखाने वाला कोई फैसला नहीं ले सकता। ग्रीस के आर्थिक संकट के कारण कई हो सकते हैं, लेकिन ग्रीस का यूरो जोन में शामिल होना संकट-समाधान के उसके कई रास्ते खत्म कर देता है।
बेशक, यूरो अभी दुनिया की एक बहुत मजबूत मुद्रा है, यह मजबूती जर्मनी और फ्रांस की वजह से है। अगर यूरो मुद्रा न शुरू हुई होती, तो भी जर्मनी और फ्रांस यूरोप की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्थाओं में रहते, उनकी इस मजबूती में शायद यूरो की भूमिका उतनी बड़ी नहीं है। लेकिन बाकी देशों को यूरो ने किसी न किसी तरह नुकसान पहुंचाया है। ग्रीस का संकट हम देख ही रहे हैं, पुर्तगाल और आयरलैंड जैसे देशों में इतना बड़ा संकट नहीं है, लेकिन समस्या वहां भी बनी हुई है। आर्थिक परेशानियां यूरो जोन के अन्य देशों में भी उभर रही हैं। इसके मुकाबले यूरोप के जो देश यूरो जोन में शामिल नहीं हुए, उनके लिए समस्या इतनी बड़ी नहीं है।
सात साल पहले, जब ग्रीस में संकट के लक्षण पहली बार दिखे थे, तो यूरोपीय आयोग, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने मिलकर उसे संकट से उबारने का एक पैकेज तैयार किया था। ऐसी संस्थाएं जब कर्ज देती हैं, तो कई तरह की शर्तें लगाती हैं, जैसे वित्तीय घाटे को तेजी से कम करना होगा, वगैरह। भारत पर जब आर्थिक संकट आया था, तो उसे भी ऐसी शर्तों पर कर्ज मिला था। इन संस्थाओं की शर्तों को पूरा करने के लिए जरूरी था कि ग्रीस सरकारी खर्चे में तेजी से कटौती करे। यह कटौती की भी गई, लेकिन इससे कोई मदद मिलने की बजाय संकट और गहरा गया। सरकारी खर्चों में कटौती से दो नुकसान एकदम सीधे हुए- एक तो इससे बेरोजगारी बढ़ गई और दूसरे, इससे जनता को मिलने वाली सुविधाएं एकदम से कम हो गईं। इन सबसे असंतोष बढ़ गया। इस बीच नया निवेश कहीं से नहीं हुआ और अर्थव्यवस्था का विकास नहीं हो सका। कर्ज बढ़ता गया, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद, यानी जीडीपी में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई। इसी के चलते अपने इतिहास पर गर्व करने वाला यूरोप का यह देश दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया है। वहां ज्यादातर बैंक इन दिनों बंद चल रहे हैं। बैंकों में जमा धन निकालने तक पर पाबंदी लगा दी गई है।
इस बीच ग्रीस की सत्ता में ऐसा वामपंथी दल पहुंच चुका है, जो यह मानता है कि सरकारी खर्चों में कटौती वापस ली जानी चाहिए। साथ ही, वह इस मुद्दे पर जनमत-संग्रह की बात भी करता रहा है कि क्या ग्रीस को यूरो जोन से अलग हो जाना चाहिए? इस बीच, वहां यह सोच भी जोर पकड़ रही है कि ग्रीस अगर यूरो जोन में शामिल नहीं होता, तो शायद वह संकट से उबरने के ज्यादा अच्छे फैसले कर सकता था। कम से कम वह मुद्रा-आपूर्ति को नियंत्रित कर सकता था, निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिए योजनाएं बना सकता था, नए निवेश को आमंत्रित करने के रास्ते बना सकता था।
अगर ग्रीस यूरो जोन से अलग हो जाता है, तो क्या होगा? बेशक, यह बहुत आसान नहीं है और इससे ग्रीस की सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी, यह भी नहीं कहा जा सकता। यूरो जोन से अलग होने के बाद ग्रीस को आत्म-निर्भर बनने की कठिन कवायद करनी होगी। और शुरू में इस अलगाव का एक झटका शायद पूरी दुनिया और खासकर यूरोप की अर्थव्यवस्था को भी लगेगा। लेकिन दीर्घकाल के हिसाब से देखा जाए, तो शायद यह सबके लिए अच्छा ही हो।
सोमवार को जब इस संकट के गहरा जाने की खबर आई, तो भारत के शेयर बाजारों में शेयर कीमतें अचानक ही लुढ़कने लगीं। तकरीबन, सभी तरह के शेयर सूचकांकों ने गोता लगाना शुरू कर दिया। हालांकि, शाम होते-होते बाजार थोड़ा संभल गया और मंगलवार को ग्रीस संकट से उपजी निराशा नदारद होती दिखाई दी। कारोबार के तौर पर भारत यूरो जोन से जुड़ा हुआ है, लेकिन भारत का ज्यादा कारोबार जर्मनी और फ्रांस से ही है। ग्रीस से भारत का ज्यादा व्यापार नहीं है, इसलिए बहुत सीधा और बहुत ज्यादा असर पड़ने का खतरा नहीं है। यूरो अगर टूटता है, तो इसका असर हो सकता है, लेकिन वह भी बहुत ज्यादा नहीं होगा। दूसरे, पिछली वैश्विक आर्थिक मंदी के मुकाबले इस बार भारत ज्यादा अच्छी स्थिति में है। भारत का वित्तीय घाटा कम हुआ है, विकास दर की संभावनाएं बढ़ी हैं, मुद्रास्फीति कम है और ब्याज दरें भी नीचे आ रही हैं। इसलिए हो सकता है कि भारत को इस संकट से कुछ फायदा ही मिल जाए। यूरोप के संकट को देखते हुए कई निवेशक भारत का रुख कर सकते हैं, क्योंकि भारत का बाजार इस समय ज्यादा स्थिर है और यहां संभावनाएं भी ज्यादा हैं।
इसी के साथ हमें ग्रीस संकट से यह सबक भी ले लेना चाहिए कि मजबूत वित्तीय नीतियों का कोई विकल्प नहीं है। और यह मजबूती पूरे देश में समान रूप से दिखनी चाहिए। आम तौर पर हम जब वित्तीय स्थिरता की बात करते हैं, तो सिर्फ केंद्र सरकार की नीतियों को ही देखते हैं। लेकिन पूरे देश की आर्थिक स्थिति का आकलन करने के लिए हमें इसमें राज्यों की अर्थव्यवस्था और उनकी नीतियों को भी शामिल कर लेना चाहिए। केंद्र के पैमाने पर आर्थिक स्थिरता का अर्थ यह नहीं है कि राज्यों के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। कई राज्यों में स्थिति काफी खराब है। स्थिरता के लिए पूरे देश का आंतरिक विकास जरूरी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
साभार-'हिंदुस्तान' 01/जुलाई/2015
No comments:
Post a Comment