मूर्खता
हमारे भीतर
कहीं गहरे
रच बस कर
बना लेती है
अपना
मुस्तखिल ठौर
इस जीवन की
सच्चाईयों
बुराइयों
और
अच्छाइयों के साथ।
शुरू से अंत तक
शून्य से शून्य तक
उसी आरंभ पर
आ मिलकर
सब कुछ अपने में
समेटते हुए
मौन की भाषा में
कुछ कहते हुए
मूर्खता
जब निकलती है
बाहर
सनक और गंभीरता के
अबूझ आवरण से
तब
बन जाती है कारण
औरों के हास्य का
लेकिन खुद में
होती है एक विमर्श
क्या-क्यों और कैसे के
पल पल उभरते
असंख्य प्रश्नों का।
~यशवन्त यश©
हमारे भीतर
कहीं गहरे
रच बस कर
बना लेती है
अपना
मुस्तखिल ठौर
इस जीवन की
सच्चाईयों
बुराइयों
और
अच्छाइयों के साथ।
शुरू से अंत तक
शून्य से शून्य तक
उसी आरंभ पर
आ मिलकर
सब कुछ अपने में
समेटते हुए
मौन की भाषा में
कुछ कहते हुए
मूर्खता
जब निकलती है
बाहर
सनक और गंभीरता के
अबूझ आवरण से
तब
बन जाती है कारण
औरों के हास्य का
लेकिन खुद में
होती है एक विमर्श
क्या-क्यों और कैसे के
पल पल उभरते
असंख्य प्रश्नों का।
~यशवन्त यश©
तभी तो कहते हैं यह दुनिया एक नाटक है..
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-04-2016) को "फर्ज और कर्ज" (चर्चा अंक-2300) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
मूर्ख दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हम्मममम।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteसही कहा
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