शोषण,शोषक और शोषित
पूरक हैं
आदि काल से
और रहेंगे
अनादि काल तक
जब तक रहेगा
यह जीवन।
हमने
नदियों, तालाबों
पेड़ों और पहाड़ों का
दोहन किया
शोषण किया
इस्तेमाल किया
और फिर
उत्सर्जित कर दिया।
किसी शोषक ने
हमसे
जी भर काम लिया
दिन भर के पसीने का
बूंद भर दाम दिया
बिना कुछ सुने –कहे
बस अपने मौन और
कुटिल दृष्टि के साथ
उसकी ‘दया’ का हाथ
हमने थामा
और चल दिये
अपने ठौर पर
चरने को
सूखी सी रोटी
और सोने को
फिर नयी सुबह के
इंतज़ार में ।
और जब
पूरा हुआ इंतज़ार
नयी सुबह का
रात के साथ
सारी बात भूल कर
हम फिर से जुट गए
उसी दिनचर्या में
जो हमारे साथ है
न जाने कितने ही
जन्मों से
और साथ
रहेगी
न जाने कितने ही
जन्मों तक।
शोषण,शोषक और शोषित
हम खुद ही हैं
अपनी दशा की दवा
और ईलाज
हम खुद ही हैं
जो नहीं पहचान पाते
दिन के उजाले
और रात के अंधेरे में
खुद के ही अक्स को।
-यश ©
12/05/2017
सुन्दर ।
ReplyDeleteयश आपके पेज पर टिप्पणी करना बहुत मुश्किल है । हर बार क्लिक करने पर कहीं और को रीडाईरेक्ट कर रहा है पेज यहा तक की पोर्न साइट्स भी खुल रही हैं देखिये कहाँ गड़बड़ हो रही है।
सुधार करने की कोशिश की है।
Deleteअपने ब्राउज़र या फोन में adblocker का भी प्रयोग कर सकते हैं।
धन्यवाद !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-05-2017) को
ReplyDelete"लजाती भोर" (चर्चा अंक-2631)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक