मन की देहरी पर
मन की बातों को लेकर
मैं -जैसा हूँ
वैसा ही बने रह कर
बस कह देता हूँ
कुछ शब्द
जो कुछ भी नहीं हो कर
कहीं समा जाते हैं
कुछ पन्नों के भीतर ।
कुछ पन्ने
जो चिन्दियाँ बन कर
उड़ कर
गिरते जाते हैं
यहाँ-वहाँ
और न जाने
क्या-क्या कह कर
कोई सुनने वाला हो यहाँ
तो वो ही समझेगा
न जाने क्या क्या दफन है
मेरे मन की देहरी पर।
-यश©
03/08/2017
बहुत बढ़िया यशवंत शुभकामनाए
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (05-08-2017) को "लड़ाई अभिमान की" (चर्चा अंक 2687) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मन के पार जाकर ही समझ आती है मन की उहापोह..
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
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