कई रूप
कई स्वरूप हैं मेरे
लेकिन क्या
मेरे 'स्वयं' के दर्शन
कभी कर पाई हूँ ?
अपने पिता-भाई
और माँ के लिए
पराई हूँ
श्वसुराल में
बाहर से आई हूँ।
मेरी खुद की
इच्छाएँ
महत्त्वाकांक्षाएँ
दब जाती हैं
हर देहरी के भीतर
क्योंकि मुझे
जानने -समझने
और मानने वाला
दूर -दूर तक
कोई नहीं।
मैं!
खुद ही निराशा में
आशा को ढूंढती फिरती हूँ
खुद से ही
खुद की बातें किया करती हूँ
मैं! देवी हूँ।
-यश ©
16/03/2018
कई स्वरूप हैं मेरे
लेकिन क्या
मेरे 'स्वयं' के दर्शन
कभी कर पाई हूँ ?
अपने पिता-भाई
और माँ के लिए
पराई हूँ
श्वसुराल में
बाहर से आई हूँ।
मेरी खुद की
इच्छाएँ
महत्त्वाकांक्षाएँ
दब जाती हैं
हर देहरी के भीतर
क्योंकि मुझे
जानने -समझने
और मानने वाला
दूर -दूर तक
कोई नहीं।
मैं!
खुद ही निराशा में
आशा को ढूंढती फिरती हूँ
खुद से ही
खुद की बातें किया करती हूँ
मैं! देवी हूँ।
-यश ©
16/03/2018
खुद में ही हर सवाल का जवाब मिलेगा
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