28 October 2018

दुविधा

इस दुनिया की सरहद से
मीलों दूर
निर्वात के
एकांत और सूनेपन में
शरीर से निकल कर
अनंत यात्रा पर
बढ़  चली
मेरी आत्मा
इस इंतज़ार में है
कि
शायद कोई मिले
जो दिखा दे
मंज़िल और
मिलवा दे
मिट्टी से बने
या आकार लेने जा रहे
किसी पुतले से ,
क्योंकि
यह अब तक अतृप्त
यह आत्मा
हमेशा की तरह
नहीं चाहती
यूं ही
भटकते रहना
न ही चाहती है
आदी होना
किसी शरीर की
फिर भी
यूं भटकते हुए
या कहीं रहते हुए
उबर नहीं पाती
खुद की
स्वाभाविक दुविधा से।

-यश©
28/10/2018



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