न गिला-शिकवा हो कोई,
न अपना कोई किस्सा हो।
बीत जाए जो ये ज़िन्दगी,
तो फिर कितना अच्छा हो।
.
बहुत पल बीते बहार में,
यह पतझड़ का दौर है।
अपना न कोई बेगानों में,
मौत ही अब एक ठौर है।
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वो कहते हैं मैं सुनता हूं,
ये बात न हो तो अच्छा हो।
बीते कल की दोहराहट का,
यहाँ न कोई किस्सा हो।
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~यश©
09/04/2019
न अपना कोई किस्सा हो।
बीत जाए जो ये ज़िन्दगी,
तो फिर कितना अच्छा हो।
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बहुत पल बीते बहार में,
यह पतझड़ का दौर है।
अपना न कोई बेगानों में,
मौत ही अब एक ठौर है।
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वो कहते हैं मैं सुनता हूं,
ये बात न हो तो अच्छा हो।
बीते कल की दोहराहट का,
यहाँ न कोई किस्सा हो।
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~यश©
09/04/2019
सुन्दर।
ReplyDeleteहमें जीवन के मर्म को समझना है न की मौत को आवाज देना...मौत कभी किसी का ठौर नहीं हो सकती क्योंकि मौत केवल देह की होती है, मन तो उस वक्त भी बना ही रहता है जब देह निष्प्राण हो जाती है. फिर एक नई देह और यह क्रम चलता ही रहता है...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
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