तो वो देख रहा है
बदलती दुनिया के रंग
संस्कृतियों के ढंग
अनंत आकाश के उस पार से
या धरती की गहराइयों से
शायद उसे होता होगा एहसास
या होता होगा पछतावा कि
'यह क्या रच दिया'?
परमाणुओं की मिट्टी से
समय की चाक पर
यह क्या ढाल दिया ?
यह वो नहीं
जिसे आकार दिया था
प्रगति के सोपानों से
जिसे साकार किया था
यह कुछ और ही है
जो उच्छश्रृंख़ल होता हुआ
सारे प्रतिमानों
सारी स्थापनाओं को
ध्वस्त करता हुआ
अपने क्षरण की ओर
बढ़ता हुआ
गढ़ रहा है
कुछ नए साँचे
अपने पुनर्सृजन के।
-यशवन्त माथुर ©
20/05/2020
सुंदर सृजन !
ReplyDelete