एक तरफ देश महामारी से जूझ रहा है वहीं दूसरी तरफ महँगाई इस कदर आसमान छू रही है कि मध्य वर्ग का घर चलाना दुश्वार हो गया है। लॉकडाउन की वजह से जहाँ दिहाड़ी मजदूर भूखों मरने के कगार पर हैं वहीं शासन-प्रशासन के कर्ता-धर्ता मूक रह कर मौत की एक और त्रासद लहर के आने का जैसे इंतजार ही कर रहे हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम के कुछ विशेष प्रावधानों ( जिनमें कुछ मूलभूत अनाजों और अन्य उत्पादों की जमाखोरी पर प्रतिबंध था) के हटाए जाने या उनमें ढील देने का असर अब सामने आने लगा है।
नवभारत टाइम्स के आज के अंक में प्रकाशित मधुरेन्द्र सिन्हा जी का आलेख इसी समस्या की ओर इशारा करता है जो संकलन की दृष्टि से साभार यहाँ प्रस्तुत है-
महामारी के बीच लोगों पर एक और वार
पिछले दो महीनों से बढ़ रही महंगाई इस महीने ग्यारह साल के उच्चतम बिंदु पर जा पहुंची है। रोजमर्रा इस्तेमाल आने वाले सामान के दाम बेतहाशा बढ़ गए हैं, जिससे महामारी से जूझ रहे लोगों के सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया है। कोविड के कारण लाखों लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं और करोड़ से भी ज्यादा लोग बेरोजगार हैं। मिडल क्लास का बजट चारों खाने चित्त हो गया है तो कम आय वर्ग के लोगों की तो जान सांसत में आ गई है। आंकड़े बता रहे हैं कि अप्रैल महीने में थोक सामानों की इन्फ्लेशन दर 10.5 प्रतिशत पर जा पहुंची। इससे पहले साल 2010 के अप्रैल में जब यूपीए की सरकार थी, तो महंगाई इस ऊंचाई पर पहुंची थी। इसी वजह से तब सरकार की लोकप्रियता में कमी आनी शुरू हो गई थी।
पेट्रोल-डीजल के बढ़ते भाव
रोजमर्रा के खाने-पीने के सामानों की कीमतों में अप्रैल महीने में 4.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। फलों, अंडों, मछलियों की कीमतें मार्च-अप्रैल में लगातार बढ़ती रहीं। इस दौरान पेट्रोल-डीजल के दाम तो बढ़े ही, मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री के सामानों की कीमतों में 9 प्रतिशत का इजाफा हुआ। ईंधन और पावर ग्रुप में तो सालाना महंगाई 21.2 प्रतिशत तक बढ़ी, जिसके लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की महंगाई को कसूरवार बताया जा रहा है। लेकिन रोजमर्रा की जिन चीजों की कीमतों में सबसे ज्यादा इजाफा हुआ वह है खाने वाला तेल। इसकी कीमतें अभूतपूर्व स्तर पर जा पहुंचीं। गरीबों के खाने में इस्तेमाल होने वाला सरसों तेल 200 रुपये प्रति लीटर की ओर जा पहुंचा है। महाराष्ट्र-गुजरात में खाना बनाने में काम आने वाला मूंगफली का तेल सवा दो सौ रुपये तक पहुंच गया है। इसे स्वाभाविक नहीं माना जा सकता क्योंकि देश में तिलहन की पैदावार लगातार बढ़ती जा रही है। इस बार भी सरसों की बंपर फसल हुई है। इसके बावजूद बड़े कारखानेदारों और सटोरियों ने कीमतें आसमान पर पहुंचा दी हैं। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि भारत दुनिया में सबसे ज्यादा खाद्य तेल उत्पादित करता है और सबसे ज्यादा खपत भी करता है। इसलिए यहां कीमतें बढ़ने पर बाहर से कोई राहत नहीं मिल पाती।
महामारी से निपटने में उलझी सरकार का इस ओर ध्यान ही नहीं है। हालत यह है कि खाने के तेलों में आज अरबों रुपये का सट्टा चल रहा है लेकिन न तो केंद्र सरकार कुछ कर पा रही है और न ही राज्य सरकार। इसके पीछे इंटरनैशनल मार्केट में पाम ऑयल के बढ़ते दामों की भूमिका बताई जा रही है। हालांकि भारत में पाम ऑयल के उत्पादन में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, फिर भी हम बहुत बड़े पैमाने पर इसका आयात करते हैं। इसकी कीमतें बढ़ने से साबुन के दाम में 5-7 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो गई है। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। एफएमसीजी कंपनियां आने वाले समय में साबुन, ब्यूटी प्रॉडक्ट्स और खाने वाले चिप्स की कीमतें 10 से 13 प्रतिशत तक बढ़ा सकती हैं। सरकार ने पाम ऑयल के आयात को घटाने के इरादे से उस पर कुल 35.75 प्रतिशत का टैक्स और सेस लगा दिया है। इसका असर ठीक-ठीक क्या होता है यह देखना पड़ेगा। आम तौर पर ऐसे मामलों में होता यही है कि आयात तो घटता नहीं, सरकार की आमदनी जरूर बढ़ जाती है। दिसंबर 2020 से इसका आयात लगातार बढ़ रहा है। सबसे खतरनाक बात यह है कि इसकी मिलावट सरसों और अन्य खाद्य तेलों में भी हो रही है।
देश में पेट्रोल और डीजल की कीमतें आसमान छू रही हैं। इसका एक बड़ा कारण है केंद्र और राज्य सरकारों का रेवेन्यू कलेक्शन ड्राइव। दोनों सरकारें जबर्दस्त टैक्स वसूली कर रही हैं। हालत यह है कि 36 रुपये का कच्चा तेल डीजल बनकर दिल्ली में 83 रुपये में बिक रहा है। इसमें 31 रुपये 80 पैसे एक्साइज ड्यूटी है और 12.19 रुपये का वैट। डीजल की महंगी होती कीमतों ने देश में महंगाई बढ़ाई है, इसमें कोई शक नहीं है। इससे माल ढुलाई की दरें बढ़ गई हैं, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान किसानों को हो रहा है। उन्हें अपनी उपज मंडियों में भेजने के लिए पहले से कहीं ज्यादा भाड़ा देना पड़ रहा है। आलू-टमाटर जैसी सब्जियों को तो फेंकने की स्थिति आ गई है क्योंकि ढुलाई की लागत उनकी कीमत से कहीं ज्यादा है। सरकार एक ओर किसानों की बात करती है और उनके खाते में पैसे भी भेजती है, लेकिन इस ओर उसकी नज़रें नहीं जा रही हैं। कंपनियों के लिए भी बढ़ा हुआ भाड़ा चुकाना भारी पड़ रहा है क्योंकि देश के बड़े हिस्से में लॉकडाउन है और सामानों की आवाजाही कम हो रही है।
मांग में कमी का खतरा
सरकार को रेवेन्यू बढ़ाने के लिए डीजल-पेट्रोल पर टैक्स बढ़ाने का यह तरीका बदलना होगा। यह पुराने कंजरवेटिव इकॉनमिक्स का हिस्सा है। इससे इकॉनमी को ही चोट पहुंचती है। बढ़ी हुई कीमतों के कारण लोग सामान खरीदने से कतराते हैं। दूसरे शब्दों में, इससे मांग में कमी आती है, जिसका परिणाम यह होता है कि मैन्युफैक्चरिंग उद्योग की गति धीमी पड़ जाती है। कुल मिलाकर इससे बाज़ार में धन का प्रवाह धीमा होता है और रोजगार में कमी आने का खतरा मंडराने लगता है। जैसा कि हमने 2020 के अप्रैल में देखा था।
समय आ गया है कि सरकार को तेलों और अन्य रोजमर्रा की चीजों के दामों पर अंकुश लगाना होगा यानी फूड इन्फ्लेशन मैनेजमेंट पर जोर देना होगा। वरना इसके गंभीर परिणाम कई स्तरों पर भुगतने होंगे।
समसामयिक और विचारणीय लेख ।
ReplyDeleteगहनतम।
ReplyDeleteजनता को अपनी रोजी-रोटी की जुगाड़ से फुर्सत नहीं इसलिए सबकुछ जानते-देखते हुए भी सरकारें चुप्पी साधे रहते हैं, बड़ी बिडंबना है....
ReplyDeleteजागरूक प्रस्तुति ..
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (21-05-2021 ) को 'मेरे घर उड़कर परिन्दे आ गये' (चर्चा अंक 4072 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
वाकई इस सुरसा जैसी बढ़ती महंगाई के बारे में सरकारों को जल्द से जल्द कुछ सोचना होगा। सार्थक लेखन !
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