कितने ही चले गए
और कितनों को जाना है
थोड़ी सी ज़िंदगी है
या मौत का बहाना है।
अपनों का रुदन सुन-सुन कर
गैरों की भी आँखें भरती हैं
हर एक दिन की आहट पर
क्या होगा सोच कर डरती हैं।
दहशत बैठी मन के भीतर
बाहर गहरे सन्नाटे में
काली रात से इन दिनों में
जाने क्या काल ने ठाना है?
(मेरे मित्र डॉक्टर प्रशांत चौधरी,SDM,बरेली को विनम्र श्रद्धांजलि,
जिनके असमय जाने से मेरा दिल टूट गया है)
04052021
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (5 -5-21) को "शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर "(चर्चा अंक 4057) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
मार्मिक सृजन सर,आज के इस माहौल में भी इंसानियत नहीं जागी तो शायद कभी नहीं जागेगी ,सादर नमन
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी! यशवंत जी आपने सही के दर्द को शब्द दे दिए।
ReplyDeleteयथार्थ भाव लेखन।
किसी भी आड़म्बर से परे ।
साधुवाद।
सच में कोरोना काल ने किसी के अपने छीने तो किसी के सपने! और आगे का पता नहीं!
ReplyDeleteसामयिक रचना
ReplyDeleteमैं आपके मन की हालत का अंदाज़ा लगा सकता हूँ आदरणीय यशवंत जी। न अपनों की मौत सही जा सकती है, न ही सपनों की। यह मुश्किल वक़्त तो जैसे-तैसे हौसला बनाए रखने का है।
ReplyDeleteहर इंसान के मन के भावों को आपने शब्द दे दिए। सार्थक सृजन।आपको मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteकोरोना ने न जाने कितने जीवन छीन लिये हैं और अब भी उसका कहर जारी है. यह घड़ी बहुत विचित्र है, अपनी सुरक्षा के साथ साथ औरों की सुरक्षा की चिंता हमें पहले करनी है, हमारी वजह से किसी को संक्रमण न हो, इसके लिए सदा सजग रहना है. दिवंगत आत्माओं को विनम्र श्रद्धांजलि !
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