24 February 2022

बदलते रंग

कभी धूप 
कभी छाँव के 
बदलते रंगों में 
कोशिश करता हूँ 
एक रंग 
अपना पाने की 
और उसी में घुलकर 
उस जैसा ही हो जाने की 
दुनियावी मायाजाल को समझकर 
धारा के साथ ही 
बह जाने की। 

लेकिन मेरे भीतर बैठा 
मेरा अपना सच 
लाख चाहने के बाद भी
डिगा नहीं पाता 
कतरे-कतरे में घुली 
रची और बसी
मौन  
विद्रोही प्रवृत्ति को 
जो अपने चरम के पार 
मुखर होते ही 
बेरंग कर देती है 
बहुत से रंगों को। 

और इसलिए 
सिर्फ इसीलिए 
जीवन के 
किसी एक क्षण भर को 
जी लेना चाहता हूँ 
बसंत बन कर 
ताकि रहे न कोई अफसोस 
ताउम्र 
रंगहीन होने का। 

-यशवन्त माथुर©
24022022

7 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२५ -०२ -२०२२ ) को
    'खलिश मन की ..'(चर्चा अंक-४३५१)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. लेकिन मेरे भीतर बैठा
    मेरा अपना सच
    लाख चाहने के बाद भी
    डिगा नहीं पाता
    कतरे-कतरे में घुली
    रची और बसी
    मौन
    विद्रोही प्रवृत्ति को
    जो अपने चरम के पार
    मुखर होते ही
    बेरंग कर देती है
    बहुत से रंगों को।
    मौन विद्रोही प्रवृत्ति!!जिसे कोई नहीं सुनता पर मन अनसुना नहीं कर सकता
    गहन भावों से भरी लाजवाब रचना
    वाह!!!

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  3. वाह! बहुत ख़ूबसूरत अहसास, एक पल में जीना जिसको आ गया वही एक दिन अनंत में जी सकता है

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  4. प्रभावी स्वर एवं प्रस्तुति।

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  5. कतरे-कतरे में घुली
    रची और बसी
    मौन
    विद्रोही प्रवृत्ति को
    जो अपने चरम के पार
    मुखर होते ही
    बेरंग कर देती है
    बहुत से रंगों को।
    आत्मविश्वास से लबरेज सराहनीय रचना । बहुत बधाई यशवंत जो ।

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  6. गहन भाव अंतर्द्वंद्व के ।
    सारगर्भित सुंदर सृजन।

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