कभी धूप
कभी छाँव के
बदलते रंगों में
कोशिश करता हूँ
एक रंग
अपना पाने की
और उसी में घुलकर
उस जैसा ही हो जाने की
दुनियावी मायाजाल को समझकर
धारा के साथ ही
बह जाने की।
लेकिन मेरे भीतर बैठा
मेरा अपना सच
लाख चाहने के बाद भी
डिगा नहीं पाता
कतरे-कतरे में घुली
रची और बसी
मौन
विद्रोही प्रवृत्ति को
जो अपने चरम के पार
मुखर होते ही
बेरंग कर देती है
बहुत से रंगों को।
और इसलिए
सिर्फ इसीलिए
जीवन के
किसी एक क्षण भर को
जी लेना चाहता हूँ
बसंत बन कर
ताकि रहे न कोई अफसोस
ताउम्र
रंगहीन होने का।
24022022
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२५ -०२ -२०२२ ) को
'खलिश मन की ..'(चर्चा अंक-४३५१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
लेकिन मेरे भीतर बैठा
ReplyDeleteमेरा अपना सच
लाख चाहने के बाद भी
डिगा नहीं पाता
कतरे-कतरे में घुली
रची और बसी
मौन
विद्रोही प्रवृत्ति को
जो अपने चरम के पार
मुखर होते ही
बेरंग कर देती है
बहुत से रंगों को।
मौन विद्रोही प्रवृत्ति!!जिसे कोई नहीं सुनता पर मन अनसुना नहीं कर सकता
गहन भावों से भरी लाजवाब रचना
वाह!!!
उम्दा सृजन
ReplyDeleteवाह! बहुत ख़ूबसूरत अहसास, एक पल में जीना जिसको आ गया वही एक दिन अनंत में जी सकता है
ReplyDeleteप्रभावी स्वर एवं प्रस्तुति।
ReplyDeleteकतरे-कतरे में घुली
ReplyDeleteरची और बसी
मौन
विद्रोही प्रवृत्ति को
जो अपने चरम के पार
मुखर होते ही
बेरंग कर देती है
बहुत से रंगों को।
आत्मविश्वास से लबरेज सराहनीय रचना । बहुत बधाई यशवंत जो ।
गहन भाव अंतर्द्वंद्व के ।
ReplyDeleteसारगर्भित सुंदर सृजन।