पके हुए गेहूं से
भरा-पूरा एक खेत
और
इस जैसे
कई और खेत
कभी
किसी दौर में
जकड़े रहते थे
बीघों फैली मिट्टी को
जड़ों के
रक्षासूत्र से।
उस रक्षासूत्र से
जिसकी आपस में उलझी
कितनी ही गांठें
तने से मिलकर
ले लेती थीं रूप
बालियों जैसे
खूबसूरत
स्वर्ण कणों का।
लेकिन अब
अब
कंक्रीट की
सभ्यता के बीचों-बीच
साँसों को गिनती
झुर्रीदार
बूढ़ी मिट्टी
किसी दुर्योधन के
कँगूरेदार
घोंसले की नींव में
दफन हो कर
हो जाना चाहती है
इस लोक से मुक्त
क्योंकि
उसकी इज्जत का रखवाला
कलियुग में
कहीं कोई कृष्ण
अब शेष नहीं।
29032022
बहुत प्रभावशाली रचना और पाठन, वाकई गाँव के गाँव निगलती जा रही है आज की बढ़ती हुई कंक्रीट की सभ्यता, शहरों के सुरसा जैसे बढ़ते हुए मुख लील रहे हैं खेतों को, लेकिन इसके बावजूद अभी भी देश में अन्न उपज रहा है, शायद इसके लिए काटे जा रहे हैं जंगल
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कहा। समय बहुत तेजी से अपना रुख बदल रहा है। इंसान होश में नहीं है।
ReplyDeleteगजन लिखते हो।
सादर