सुनो! ..... मैं जानता हूँ.... कि तुम और मैं नहीं चल सकते एक ही राह पर... कि तुम्हारी राह अलग है और मेरी अलग ... कि तुम आसमाँ सी ऊंचाई हो और मैं... मैं? मैं सिर्फ एक परकटा परिंदा हूँ..... जो भर नहीं सकता परवाज़..... जो दे नहीं सकता आवाज़..... जो छू नहीं सकता तुम्हारे कंधे ...... जो धरती की गोद में सर रखकर ताकता रहता है........ हर घड़ी तुम्हें ......सिर्फ तुम्हें!....... पता है क्यों? ............क्योंकि हर दूरी के बाद भी मुझे उम्मीद है....... कि एक दिन समय को भ्रम होगा क्षितिज का .....और उस क्षितिज पर वही एक शब्द कहने का कि .... 'सुनो'!......... (मैं वही हूँ)।
09022023
आशा और विश्वास की झलक देती रचना
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति
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