सुनो!
उस दिन तुमने कहा था ना .....कि मैं जलता हूँ। ....मैं चुप रहा था..... इसलिए नहीं..... कि मेरे पास जवाब नहीं था बल्कि.... इसलिए ....कि मैं चाहता था..... कि उस दिन जीत तुम्हारी हो।
वैसे गलत तुमने कुछ कहा भी नहीं। पता है क्यों?.... क्योंकि मैं जलता हूँ ...हाँ मैं जलता हूँ ...आसमां में चमकते सूरज को देखकर ......मुझे होती है जलन.... कि मैं रोशनी नहीं दे सकता। ....... रात को चमकते चाँद को देख कर भी जलता हूँ ..... कि चाँदनी रात का खूबसूरत मुहावरा बनना ......मैं अपने प्रारब्ध से लिखवाकर नहीं लाया ........और हाँ जलाती तो मुझे मावस की रात भी है...... क्योंकि सिर्फ वही साक्षी होती है.... तुम्हारे हर सुख...... हर दुख की।
सुनो!
मैं हर स्याह कमरे में ......दीये की हर बाती से जलता हूँ ....हर काजल से जलता हूँ ......हर उस शेष-अवशेष से जलता हूँ .....जो सहभागी होता है........तुम्हारी हर कदम-ताल का। ...... इस जलन का ......कारण!.... सिर्फ इतना..... कि मुझे राख बनने में ....अभी सदियाँ बाकी हैं।
13032023
आँखें न हों तो सूरज का भान ही नहीं होता, उनकी ज्योति सूरज से बढ़कर नहीं है क्या ? मन न हो तो आदमी देखकर भी नहीं देखता, मन की ज्योति उससे भी बढ़कर है, आत्मा न हो मन कहाँ से आएगा, आत्मा की ज्योति सबसे बढ़कर है, और वह हर मानव के पास है, वही तो चाँद-सितारों को उनके नाम देता है, उनकी स्तुति करता है, वही साक्षी है मन और जगत का ! सदियाँ ही नहीं युग बीत जाएँ पर वह ज्योति कभी नष्ट नहीं होती, सूरज भी एक न एक दिन बुझ जाएगा पर चैतन्य सदा रहेगा, वह राख हो ही नहीं सकता !
ReplyDelete