'समर' के इस समर में
संभल संभल के चलना है
सर पे टोपी या अंगोछा
साथ मे पानी पीते रहना है
यह मौसम है लू का
तपती धूप का मेरे लिये
घर की ठंडक में दुबक कर
हर दुपहर को सोना है
बस आज निकला जो घर से बाहर
तो हर 'अक्सर' की तरह देखा
मजदूर के बच्चों को तो
अंगारों पे ही रहना है
मेरे पैरों मे पड जाते हैं
चलते चलते छाले
पैरों में 'कुशन' की चप्पल
पहन कर के ही निकलना है
'समर' के इस समर में
संभल संभल के चलना है
कहीं तर बतर गले हैं
कहीं सूखते हलक को जीना है।
['समर'=summer=गर्मी]
~यशवन्त माथुर©
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteसटीक अभिव्यक्ति ।
ReplyDelete'समर' के इस समर में-बेहतरीन सार्थक संदेश देती रचना,आभार.
ReplyDeleteबस आज निकला जो घर से बाहर
ReplyDeleteतो हर 'अक्सर' की तरह देखा
मजदूर के बच्चों को तो
अंगारों पे ही रहना है……………दिल को छूती एक गहन और संवेदनशील अभिव्यक्ति
सुंदर प्रस्तुति!
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति!
ReplyDeleteसमर' के इस समर में
ReplyDeleteसंभल संभल के चलना है
कहीं तर बतर गले हैं
कहीं सूखते हलक को जीना है।
satik soch ...
'समर' के इस समर में
ReplyDeleteसंभल संभल के चलना है
कहीं तर बतर गले हैं
कहीं सूखते हलक को जीना है। .....सटीक अभिव्यक्ति ।
!!
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया यशवंत
ReplyDeleteसस्नेह
अनु