समय के चक्रव्यूह में फँसकर
नहीं बचा कुछ पाने को।
उखड़ती साँसों से क्या कहना
अमृत को चख जाने को।
बहरूपियों के जीवन मंच पर
कठपुतलियाँ खेल दिखाती हैं।
जैसा जो कोई कहता जाता
बस वैसा करती जातीं हैं।
अपनी अपनी राहों पर सब
जुटे हैं मंज़िल पाने को।
गैरों में किसको खुद का समझें
नहीं कोई साथ निभाने को।
.
-यश©
10/09/2017
नहीं बचा कुछ पाने को।
उखड़ती साँसों से क्या कहना
अमृत को चख जाने को।
बहरूपियों के जीवन मंच पर
कठपुतलियाँ खेल दिखाती हैं।
जैसा जो कोई कहता जाता
बस वैसा करती जातीं हैं।
अपनी अपनी राहों पर सब
जुटे हैं मंज़िल पाने को।
गैरों में किसको खुद का समझें
नहीं कोई साथ निभाने को।
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-यश©
10/09/2017
वाह ! क्या बात है ! बहुत सुंदर रचना की प्रस्तुति ! बहुत खूब आदरणीय ।
ReplyDeleteसाथ निभाने वाला तो एक वही है..जिसने उससे नाता जोड़ लिया वह तर गया
ReplyDeleteसुन्दर रचना
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