कुछ लोग कहते हैं कि टाइम नहीं है, इसलिए ऑनलाइन सामान मंगवाते हैं। मैं कहता हूं, घर से बाहर ही नहीं निकलोगे तो समाज को क्या जानोगे! ऑनलाइन शॉपिंग ने आज लोगों को अपने तक सिमटाकर रख दिया है
ऑनलाइन शॉपिंग बेहद सुविधाजनक है। बस आपको घर बैठे-बैठे फोन पर उंगलियां घुमानी हैं। अगले ही दिन सामान आ जाएगा। आपको सामान पसंद नहीं आए तो आप उसे बिना अपना नुकसान किए वापस भी कर सकते हैं। अब शायद ही ऐसी कोई चीज है, जिसे घर बैठे आप मंगवा न सकते हों। आप ऑर्डर करें और सामान आने के बाद उसके पैसे दें। इस व्यापार में कहीं कोई बड़ी धांधली भी नहीं है। ऑनलाइन शॉपिंग के जमाने में, यानी आजकल कपल्स के लिए ‘वी टाइम’ यानी दोनों को अकेले में बतियाने के लिए समय निकालना बहुत मुश्किल है। पूरा दिन काम में निकल जाता है। शाम को घर पहुंचकर हम टीवी देखते हैं और सो जाते हैं। ऐसे में अगर शॉपिंग भी लैपटॉप या मोबाइल से होगी तो आपस में जान-पहचान कब होगी/
किसी जमाने में जरूरत की हर चीज लेने के लिए अलग-अलग लाइनें लगती थीं और आदमी घंटों कतार में खड़ा रहता था। मुझे याद है, जब दिल्ली मिल्क स्कीम की बोतलें आती थीं, तब हम उसे लेने के लिए सवेरे-सवेरे लाइनों में लगते ताकि स्कूल जाने के समय से पहले ही दूध घर में आ जाए। सभी भाइयों को अलग-अलग दिन लाइनों में लगना होता था। कई बार तो हम थैले में पत्थर रखकर लाइन में लगा आते थे। भैंस का दूध लेने के लिए भी लाइन लगती थी। हम हर समय अपनी आंखें बाल्टी में गड़ाए रहते थे क्योंकि देखना चाहते थे कि दूधवाला कब दूध में पानी मिलाता है। वह भैंस के थन धोता तो भी हमें लगता कि कहीं वह पानी तो नहीं मिला रहा। पर उसको हमारी इन हरकतों पर कभी गुस्सा नहीं आता था।
मिट्टी के तेल की लाइन तो बहुत ही मशहूर थी। उस समय मिट्टी के तेल से स्टोव जलाया जाता था और मिट्टी का तेल तब राशन में मिला करता था। मिट्टी का तेल पा लेने का मतलब था बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त करना। स्टोव से पहले अंगीठी पर खाना बना करता था तो घर में कोयला और लकड़ी दोनों आती थी। कोयले की भी लाइन हुआ करती थी। पुराने अखबार और कागजों को जला कर अंगीठी सवेरे-सवेरे जलाते थे। जब तक वह बुझ न जाए, तब तक मां की कोशिश रहती थी कि उस पर एक-एक भगोना नहाने के लिए पानी भी गर्म हो जाए और स्कूल जाने से पहले बच्चों के लिए खाना भी बन जाए। सारे घर में इस अंगीठी का धुआं ही धुआं हो जाता था।
राशन की दुकान पर तो सबसे ज्यादा लाइनें थी। हम पांच भाई-बहन थे। कोई एक लाइन में लगता तो कोई दूसरी लाइन में लगता। दिक्कत तो उनको थी, जिनके घर बच्चे नहीं थे। उन्हें चारों तरफ खुद भागना पड़ता था। उन दिनों नौकर भी नहीं हुआ करते थे और खर्चा भी बड़े संयम से किया जाता था। आजकल के बच्चों को यह जानकर बड़ा ताज्जुब होगा कि टेलीफोन, बिजली और पानी के बिल जमा करने के लिए भी लाइनें थीं। सुपर बाजार में सामान खरीदने के लिए भी लाइनें थीं और बसों के लिए भी।
पिछले दिनों मैंने किसी से पूछा कि अब बस की लाइनें नहीं लगती हैं क्या, तो उसने तपाक से कहा, बसें ही अब कहां हैं जो लाइनें लगेंगी। आपको याद होगा कि घरों में गेहूं को खुद ही साफ करके चक्की पर पिसवाने ले जाया करते थे। हम खुद पीपा उठाकर चक्की तक जाते थे और वहां पर भी लाइन लगी होती थी। वहां देखते थे कि कहीं हमारे बढ़िया गेहूं से पिसते आटे में उसने अपना आटा तो नहीं मिला दिया, या आटा कम तो नहीं दिया/
तब लोग खूब मोल-भाव करके खरीदारी करते थे। महिलाएं सब्जी खरीदते हुए जब तक मुफ्त में धनिया और मिर्च न डलवा लें, तब तक उन्हें संतोष नहीं होता था। ये लाइनें बड़ा संयम सिखाती थीं। गर्मी-सर्दी का कोई असर न था। पता नहीं, अब लाइनों का वह समय कहां जा रहा है। ऐसा तो नहीं लगता कि इन लाइनों का समय बचा कर हम बहुत बड़े तीर मार रहे हों। बाहर की लाइनें तो खत्म हुई, पर मन के भीतर की लाइनें लंबी हैं।
हमारी चाहतें बहुत बढ़ गई हैं लेकिन मन अशांत है। तब लंबी-लंबी कतारों के बावजूद तन और मन दोनों शांत थे। आज ऑनलाइन ने अड़ोस-पड़ोस तो खत्म कर ही दिया है, रिश्तेदारी भी खत्म कर दी। खुद वस्तुएं देखकर खरीदने का जो सुख था, वह भी खत्म हो गया। ऐसा लगता है कि लेने के लिए चीजें ली जा रही हैं, चाहे उनकी जरूरत भी न हो। मुझे याद है कि पहले पूरा परिवार मिलकर शॉपिंग करने जाता था। पर अब कोई भी अपने बंद कमरे में बैठकर किसी भी चीज का ऑनलाइन ऑर्डर कर देता है, घर में किसी दूसरे को पता भी नहीं चलता। आप मोबाइल पर ऑनलाइन काम कर रहे हैं। आपको कोई चीज दिखाई देती है, आपको जरूरत न हो तो भी आप बटन दबाकर उस चीज का ऑर्डर कर देते हैं।
तब जिंदगी अच्छी-खासी लाइन में गुजर जाती थी, पर कतारों के भी बड़े फायदे थे। इसमें खड़े-खड़े दुनिया भर की बातें होती थीं। पता चल जाता था कि पास-पड़ोस में क्या चल रहा है। एक तरह से इन लाइनों के कारण समाज में सब जुड़े हुए थे। इन्हीं लाइनों में तकरारें, झगड़े भी हो जाते थे, पर उनमें भी एक मिठास थी। और इन्हीं लाइनों में प्रेम-मोहब्बत के किस्से भी हो जाते थे। आज सारा देश, खास तौर से नई पीढ़ी ऑनलाइन की लाइन में लग गई है। लेकिन ऑनलाइन शॉपिंग ने इंसान को इंसान से काट दिया है। कुछ लोग कहते हैं कि टाइम नहीं है, इसलिए ऑनलाइन सामान मंगवाते हैं। पर मैं कहता हूं कि घर से बाहर ही नहीं निकलोगे तो समाज को क्या जानोगे, देश की समस्याओं को क्या पहचानोगे!
ऑनलाइन शॉपिंग बेहद सुविधाजनक है। बस आपको घर बैठे-बैठे फोन पर उंगलियां घुमानी हैं। अगले ही दिन सामान आ जाएगा। आपको सामान पसंद नहीं आए तो आप उसे बिना अपना नुकसान किए वापस भी कर सकते हैं। अब शायद ही ऐसी कोई चीज है, जिसे घर बैठे आप मंगवा न सकते हों। आप ऑर्डर करें और सामान आने के बाद उसके पैसे दें। इस व्यापार में कहीं कोई बड़ी धांधली भी नहीं है। ऑनलाइन शॉपिंग के जमाने में, यानी आजकल कपल्स के लिए ‘वी टाइम’ यानी दोनों को अकेले में बतियाने के लिए समय निकालना बहुत मुश्किल है। पूरा दिन काम में निकल जाता है। शाम को घर पहुंचकर हम टीवी देखते हैं और सो जाते हैं। ऐसे में अगर शॉपिंग भी लैपटॉप या मोबाइल से होगी तो आपस में जान-पहचान कब होगी/
किसी जमाने में जरूरत की हर चीज लेने के लिए अलग-अलग लाइनें लगती थीं और आदमी घंटों कतार में खड़ा रहता था। मुझे याद है, जब दिल्ली मिल्क स्कीम की बोतलें आती थीं, तब हम उसे लेने के लिए सवेरे-सवेरे लाइनों में लगते ताकि स्कूल जाने के समय से पहले ही दूध घर में आ जाए। सभी भाइयों को अलग-अलग दिन लाइनों में लगना होता था। कई बार तो हम थैले में पत्थर रखकर लाइन में लगा आते थे। भैंस का दूध लेने के लिए भी लाइन लगती थी। हम हर समय अपनी आंखें बाल्टी में गड़ाए रहते थे क्योंकि देखना चाहते थे कि दूधवाला कब दूध में पानी मिलाता है। वह भैंस के थन धोता तो भी हमें लगता कि कहीं वह पानी तो नहीं मिला रहा। पर उसको हमारी इन हरकतों पर कभी गुस्सा नहीं आता था।
मिट्टी के तेल की लाइन तो बहुत ही मशहूर थी। उस समय मिट्टी के तेल से स्टोव जलाया जाता था और मिट्टी का तेल तब राशन में मिला करता था। मिट्टी का तेल पा लेने का मतलब था बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त करना। स्टोव से पहले अंगीठी पर खाना बना करता था तो घर में कोयला और लकड़ी दोनों आती थी। कोयले की भी लाइन हुआ करती थी। पुराने अखबार और कागजों को जला कर अंगीठी सवेरे-सवेरे जलाते थे। जब तक वह बुझ न जाए, तब तक मां की कोशिश रहती थी कि उस पर एक-एक भगोना नहाने के लिए पानी भी गर्म हो जाए और स्कूल जाने से पहले बच्चों के लिए खाना भी बन जाए। सारे घर में इस अंगीठी का धुआं ही धुआं हो जाता था।
राशन की दुकान पर तो सबसे ज्यादा लाइनें थी। हम पांच भाई-बहन थे। कोई एक लाइन में लगता तो कोई दूसरी लाइन में लगता। दिक्कत तो उनको थी, जिनके घर बच्चे नहीं थे। उन्हें चारों तरफ खुद भागना पड़ता था। उन दिनों नौकर भी नहीं हुआ करते थे और खर्चा भी बड़े संयम से किया जाता था। आजकल के बच्चों को यह जानकर बड़ा ताज्जुब होगा कि टेलीफोन, बिजली और पानी के बिल जमा करने के लिए भी लाइनें थीं। सुपर बाजार में सामान खरीदने के लिए भी लाइनें थीं और बसों के लिए भी।
पिछले दिनों मैंने किसी से पूछा कि अब बस की लाइनें नहीं लगती हैं क्या, तो उसने तपाक से कहा, बसें ही अब कहां हैं जो लाइनें लगेंगी। आपको याद होगा कि घरों में गेहूं को खुद ही साफ करके चक्की पर पिसवाने ले जाया करते थे। हम खुद पीपा उठाकर चक्की तक जाते थे और वहां पर भी लाइन लगी होती थी। वहां देखते थे कि कहीं हमारे बढ़िया गेहूं से पिसते आटे में उसने अपना आटा तो नहीं मिला दिया, या आटा कम तो नहीं दिया/
तब लोग खूब मोल-भाव करके खरीदारी करते थे। महिलाएं सब्जी खरीदते हुए जब तक मुफ्त में धनिया और मिर्च न डलवा लें, तब तक उन्हें संतोष नहीं होता था। ये लाइनें बड़ा संयम सिखाती थीं। गर्मी-सर्दी का कोई असर न था। पता नहीं, अब लाइनों का वह समय कहां जा रहा है। ऐसा तो नहीं लगता कि इन लाइनों का समय बचा कर हम बहुत बड़े तीर मार रहे हों। बाहर की लाइनें तो खत्म हुई, पर मन के भीतर की लाइनें लंबी हैं।
हमारी चाहतें बहुत बढ़ गई हैं लेकिन मन अशांत है। तब लंबी-लंबी कतारों के बावजूद तन और मन दोनों शांत थे। आज ऑनलाइन ने अड़ोस-पड़ोस तो खत्म कर ही दिया है, रिश्तेदारी भी खत्म कर दी। खुद वस्तुएं देखकर खरीदने का जो सुख था, वह भी खत्म हो गया। ऐसा लगता है कि लेने के लिए चीजें ली जा रही हैं, चाहे उनकी जरूरत भी न हो। मुझे याद है कि पहले पूरा परिवार मिलकर शॉपिंग करने जाता था। पर अब कोई भी अपने बंद कमरे में बैठकर किसी भी चीज का ऑनलाइन ऑर्डर कर देता है, घर में किसी दूसरे को पता भी नहीं चलता। आप मोबाइल पर ऑनलाइन काम कर रहे हैं। आपको कोई चीज दिखाई देती है, आपको जरूरत न हो तो भी आप बटन दबाकर उस चीज का ऑर्डर कर देते हैं।
तब जिंदगी अच्छी-खासी लाइन में गुजर जाती थी, पर कतारों के भी बड़े फायदे थे। इसमें खड़े-खड़े दुनिया भर की बातें होती थीं। पता चल जाता था कि पास-पड़ोस में क्या चल रहा है। एक तरह से इन लाइनों के कारण समाज में सब जुड़े हुए थे। इन्हीं लाइनों में तकरारें, झगड़े भी हो जाते थे, पर उनमें भी एक मिठास थी। और इन्हीं लाइनों में प्रेम-मोहब्बत के किस्से भी हो जाते थे। आज सारा देश, खास तौर से नई पीढ़ी ऑनलाइन की लाइन में लग गई है। लेकिन ऑनलाइन शॉपिंग ने इंसान को इंसान से काट दिया है। कुछ लोग कहते हैं कि टाइम नहीं है, इसलिए ऑनलाइन सामान मंगवाते हैं। पर मैं कहता हूं कि घर से बाहर ही नहीं निकलोगे तो समाज को क्या जानोगे, देश की समस्याओं को क्या पहचानोगे!
(लेखकराज्यसभा सांसद हैं)
साभार -नवभारत टाइम्स-01/06/2019
बहुत बढ़िया लेख
ReplyDeleteबढ़िया
ReplyDeleteयथार्थवादी चित्रण आज की भौतिकतावादी जीवन शैली का..
ReplyDeleteThanks for sharing this amazing article loved your Blogspot blog
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