लू के गरम थपेड़ों में
कहीं पेड़ों की छांह नहीं
सूखते प्यासे हलक तरसते
कहीं प्याऊ की राह नहीं
पुण्य कमाने की लोगों में
अब दिखती कोई चाह नहीं
सड़क किनारे के मॉलों में
फटेहालों की परवाह नहीं
'वाटर पार्कों' में पानी बहता
बिन धुली कारों की शान नहीं
कंक्रीट की छतों पे टंकी रिसती
बिन एसी -कूलर मकान नहीं
लिखना कहना काम है अपना
समझने का कोई दबाव नहीं
हम तो पीते रोज़ ही शर्बत
फुटपाथियों का कोई भाव नहीं
लू के गरम थपेड़ों में
कहीं पेड़ों की छांव नहीं
गरम पसीना अपना साथी
जीवन जीना आसान नहीं
~यशवन्त माथुर©
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लू के थपेड़ों के बीच माथे पर बोझ उठाये श्रमिकों को देख यही ख्याल आता है , जीवन जीना आसान नहीं !
ReplyDeleteacchai darshati kavita...umda bahv
ReplyDeleteसच में जीना आसान नहीं ...बहुत बढ़िया रचना
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील कविता
ReplyDeleteअब कोई समझे या न समझे .... दबाव तो है नहीं ... विचारणीय रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर और सार्थक ...........सुंदर सोच
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना यशवंत भाई. बधाई.
ReplyDeleteवाह बहुत खूब
ReplyDeleteशुभकामनायें
लू के गरम थपेड़ों में
ReplyDeleteकहीं पेड़ों की छांव नहीं
गरम पसीना अपना साथी
जीवन जीना आसान नहीं
नहीं ऐसा नहीं है आज भी ६५ प्रतिशत लोग अच्छे हैं बस हमारी आपकी उनसे भेंट नहीं वरना आप लिखते किसके लिए ?
बहुत बढ़िया और संवेदनशील रचना
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना....शुभकामनायें
ReplyDeleteलू के इन थपेड़ों में कितने जीवन जीते हैं ... मजबूरियों को ढोते हुए ...
ReplyDeleteसंवेदनशील रचना..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना है, शुभकामनायें.
ReplyDeleteबेहतरीन!
ReplyDeleteआज के सच को दर्शाती.. कैसे बे-दिल हो चुके हैं हम सब..