चित्र साभार-गूगल सर्च |
कभी
कल कल कर
निर्बाध बह बह कर
किनारे पर आ लगती थीं
कल्पना की
अलग अलग लहरें....
कहती थीं
अपने हिस्से का सच
छोड़ जाती थीं
भीतर समाए हुए
सीपियों के कुछ निशां
जिन से झलकती थी
सरसता और
मौलिकता ।
(2)
विकास के इस दौर में
पल पल बदलती रंगत में
न जाने कहाँ खो गयी है
वह निर्बाध कल कल
काली-स्याह
प्रदूषित
मेरे इस युवा समय की
भोंथरी कल्पना
अब अपने भीतर
सीप नहीं ...
लेकर चलती है
सड़े गले अवशेष
दरकिनार कर के
पुरानी बूढ़ी विरासत को
और किनारे की रेत मे
छोडती चलती है
भाव रहित
बे हिसाब ठोस
कंकड़ पत्थर
जो बने हैं
सरसता
और मौलिकता की
दुखियारी आँखों से
गिरते आंसुओं की
हर एक बूंद से।
~यशवन्त माथुर©
कल्पना की लहरें मोती सीप लाती रहेंगी किनारे तक... बची रहेगी मौलिकता!
ReplyDeleteबहुत सुंदर पोस्ट
ReplyDeletesaral-sahaz shabdo men gudh abhivyakti
हार्दिक शुभकामनायें
दोनों रचनाएँ गहरे अर्थ संजोये....
ReplyDeleteकल्पना की लहरें मन की सच्ची भावो को शब्द तो देगी ही..बहुत बढ़िया..शुभकामनाएं..यशवंत
ReplyDeleteसुंदर कविताएं ,उत्तम |
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteयहाँ भी पधारे
http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_29.html
कल्पना की लहरें बड़ी गहराई से उठी हैं...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
सस्नेह
अनु
सच कहा अब कम हो रहा है मौलिकता और बढ रहा है
ReplyDeleteकृत्रिमता हमें कुछ करना होगा जिससे बनी रहे मौलिकता......
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवारीय चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteयशवंत जी, कविता का दायरा बहुत विशाल है..परमात्मा के जैसे कविता सब कुछ अपने में समेट लेती है, जो बात भी मानव मन को छू जाये आंदोलित करके उसके भाव जगत को विलोड़ित करे वह कविता ही है..कविता सप्रयास कही नहीं जाती अनायास ही हो जाती है..सो हम तो आपकी रचना को कविता ही मानेंगे...सत्य को देखने का प्रयास करती हुई सुंदर कविता..
ReplyDeletekalpna ki lahron ne sacchai ka bakhoobi bayan kar diya ,....
ReplyDeleteभूल सुधार
ReplyDeleteबुधवार की चर्चा में
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसुन्दर प्रभावी रचना … शुभकामनायें
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