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17 September 2013

कहीं को जाते हुए ......

कहीं को जाते हुए
जब भी गुज़रता हूँ 

रेल लाइन के किनारे की 
उस बस्ती से 
देखता हूँ उसे 
हर बार की तरह 
मुस्कुराते हुए 
चमकती आँखों में
कुछ सपने सजाते हुए । 
वो गाता है 
दो दूनी चार 
वो सुनता है 
ककहरा के पाठ 
फुटपाथ की समतल 
कुर्सी और मेज पर 
नन्ही तर्जनी की पेंसिल से 
वह लिखता है अपना कर्म 
पथरीली मिट्टी की कॉपी पर । 
मैं थोड़ा रुकता हूँ 
आँखों के कैमरे से 
उतार कर
उसकी एक तस्वीर 
सँजोता हूँ 
मन की एल्बम में 
और निकल लेता हूँ 
उसकी उजली राह से 
अपनी अंधेरी 
मंज़िल की ओर। 

~यशवन्त यश©

10 comments:

  1. कितनी आसानी से आप सब कह जाते हैं
    ये मैं भी कितनी बार जी हूँ
    हार्दिक शुभकामनायें

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  2. अनुभव बताता है कि रोशनी सब जगह है अंधेरे में भी.

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  3. आज की जिंदगी की सच्चाई. बेहतरीन रचना.

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  4. सुंदर रचना...
    आप की ये रचना आने वाले शुकरवार यानी 20 सितंबर 2013 को नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है... ताकि आप की ये रचना अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    आप भी इस हलचल में सादर आमंत्रित है... आप इस हलचल में शामिल अन्य रचनाओं पर भी अपनी दृष्टि डालें...इस संदर्भ में आप के सुझावों का स्वागत है...
    उजाले उनकी यादों के पर आना... इस ब्लौग पर आप हर रोज 2 रचनाएं पढेंगे... आप भी इस ब्लौग का अनुसरण करना।



    आप सब की कविताएं कविता मंच पर आमंत्रित है।
    हम आज भूल रहे हैं अपनी संस्कृति सभ्यता व अपना गौरवमयी इतिहास आप ही लिखिये हमारा अतीत के माध्यम से। ध्यान रहे रचना में किसी धर्म पर कटाक्ष नही होना चाहिये।
    इस के लिये आप को मात्रkuldeepsingpinku@gmail.com पर मिल भेजकर निमंत्रण लिंक प्राप्त करना है।



    मन का मंथन [मेरे विचारों का दर्पण]

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  5. उजली राह की मंजिल अँधेरी हो ही नहीं सकती...

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  6. बेह्तरीन अभिव्यक्ति बहुत खूब , शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    http://madan-saxena.blogspot.in/
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  7. बहुत गहरी रचना है यह यशवंत भाई. बहुत अच्छा लगा.

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  8. गहरे भाव लिए हुए सार्थक अभिव्यक्ति.... सुन्दर रचना ....

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