क्यों दिल कभी यूं बेचैन हो उठता है,
रात ख्वाबों में छोड़ सुबह में खो उठता है।
ये उजला फलक तुम्हारी रूह की तरह है,
तकता है एकटक तमन्ना छोड़ उठता है।
मेरा विषय नहीं है प्रेम फिर भी क्यों इन दिनों,
पलकों की कोर पे ओस का जमना हो उठता है।
बन कर सैलाब गुजरती है जब मिलने को समंदर में,
लबों के ढाल का मुकद्दर जवां हो उठता है।
जा रहा है वसंत मिलने को जेठ की दोपहरी से,
मन की देहरी को तपन का एहसास हो उठता है।
न था जो शायर और न ही होगा कभी,
बेमौसम ही शब्दों का वो पतझड़ हो उठता है।
27022021
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-02-2021) को "महक रहा खिलता उपवन" (चर्चा अंक-3991) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सादर धन्यवाद सर🙏
Deleteसादर धन्यवाद सर🙏
Deleteन था जो शायर और न ही होगा कभी,
ReplyDeleteबेमौसम ही शब्दों का वो पतझड़ हो उठता है।..उम्दा शेर ..
सुन्दर गजल..
सादर धन्यवाद 🙏
Deleteबहुत सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद 🙏
Deleteवाह , खूबसूरत ग़ज़ल ,यशवंत बहुत अरसे बाद तुमको पढ़ा ।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद आंटी🙏
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteबहुत ही खूबसूरत पंक्ति सर
ReplyDeleteकृपया हमारे ब्लॉग पर भी आइए आपका हार्दिक स्वागत है और अपनी राय व्यक्त कीजिए!
सादर धन्यवाद🙏
Deleteजी हां आपका ब्लॉग देखा, अच्छा लगा। लिखते रहें।
वाह! बहुत ही ख़ूबसूरत सृजन।
ReplyDeleteसादर
सादर धन्यवाद 🙏
Deleteवाह ! वसंत जेठ से मिलने जा रहा है और मन तपा जा रहा है, बहुत सुंदर ! ऊपर ऊपर से न दिखे पर कविता की गहराई में प्रेम विषय न हो यह भला कैसे हो सकता है, शायर का दूसरा नाम ही प्रेम है, यह सारा आलम प्रेम से ही तो बना है प्रेम पर ही टिका है...
ReplyDeleteसादर धन्यवाद 🙏
ReplyDeleteपता नहीं क्यों लेकिन प्रेम जैसे विषय पर लिखने में मुझे हिचक सी होती है। यह मेरा अब तक का दूसरा प्रयास ही है।
प्रयास जारी रखिए, ईश्वर को प्रेम से ही पाया जा सकता है, कबीर दास ने कहा है न ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होये
Deleteजी बिल्कुल!
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