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20 April 2011

गिरगिट

(1)
एक गिरगिट
पास  की झाडियों में
खेल रहा था लुकाछिपी
और बदल रहा था
अपना रंग
लगातार
तलाश में था
अपने भोजन को

(2)
हम इंसान भी
गिरगिट ही तो हैं
बदलते पल के साथ
इच्छाएँ भी
बदलती जाती हैं
चाहतें बदलती जाती हैं
और बदल लेते हैं
हम  भी
अपनी पहचान का रंग
कभी अच्छा
कभी बुरा.

17 comments:

  1. काफ़ी हद तक सहमत .....
    इन्सानों में गिरगिट की सी मासूमियत नहीं है !

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  2. रंग बदलने के लिए गिरगिटों को बेकार बदनाम किया इसमें आदमी कहीं आगे है

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  3. बिलकुल सही कहा आपने....आज इंसान बस गिरगिट सा ही हो गया है...सुंदर विचार।

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  4. सही कहा आपने... बल्कि गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलते हैं!

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  5. इंसानी फ़ितरत को बखूबी उकेरा है………आज तो सभी गिरगिट हैं।

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  6. गिरगिट के बहाने मानवीय प्रकृति का यथार्थ बहुत सुन्दर ढंग से सामने रखा है आपने...
    हार्दिक बधाई।

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  7. हम इंसान भी
    गिरगिट ही तो हैं
    बदलते पल के साथ
    इच्छाएँ भी
    बदलती जाती हैं
    चाहतें बदलती जाती हैं
    और बदल लेते हैं
    हम भी
    अपनी पहचान का रंग
    कभी अच्छा
    कभी बुरा.
    badhiyaa

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  8. बदलते पल के साथ
    इच्छाएँ भी
    बदलती जाती हैं
    चाहतें बदलती जाती हैं
    और बदल लेते हैं
    हम भी
    अपनी पहचान का रंग

    सच में यही होता है...

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  9. सही कहा आपने... बल्कि गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलते हैं!

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  10. गहरी बात कह दी आपने। नज़र आती हुये पर भी यकीं नहीं आता।

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  11. बदल लेते हैं
    हम भी
    अपनी पहचान का रंग
    कभी अच्छा
    कभी बुरा.

    बहुत ही सच्ची बात कही है आपने
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  12. बहुत अच्छी क्षणिकायें इसमे मेरी भी एक जोड लें।---
    वो सब के दोस्त?
    मगर कैसे?
    अपनी किस्मत ही क्यों
    धोखा खा गयी
    इक दिन देखा
    गिरगिट को रंग बदलते
    उनकी तरकीब
    समझ आ गयी
    धन्यवाद।

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  13. सच है आज तो हेर किसी में गिरगिट बसा है ....

    बहुत सुन्दर रचना

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  14. आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद!

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