कभी कभी मैं बहुत कुछ अजीब सोचता हूँ। यह पंक्तियाँ मेरे सिरफिरे मन मे आए कुछ विचारों का परिणाम हैं। और चूंकि अब लिख गयी हैं तो आप भी झेलिए :)
इस राह पर
हुआ करती थी
कभी चहल पहल
तन का चोला ओढ़े
84 करोड़ आत्माएँ
भेदती थीं
धरती का सीना
अपनी पदचापों से
आज
ये राह सुनसान है
जीवन की
कल्पना से परे
गहन,बेचैन
और
भावशून्य निर्वात
भीतर ही भीतर
सिसक रहा है
इस राह पर
अक्सर दिखता है
आसमान मे
चमकता चाँद
बादलों से
अठखेलियाँ करता चाँद
बेढब बेडौल
मगर
मुसकुराता सा चाँद-
इस राह को
ऐसे देखता है
जैसे उसे
पता हो सब
भूत और
भविष्य का विधान
इस राह पर
निर्जन राह पर
टिकी हुई है
मेरी दृष्टि
समय के उस पार से
चाँद के उस पार से
तिलिस्मी
आकाश गंगा की
अनंत गहराइयों के
भीतर से
ताक रहा हूँ
एकटक
प्रकाश वर्षों के
इस पार
इस एक
अकेली
राह पर!
इस राह पर
हुआ करती थी
कभी चहल पहल
तन का चोला ओढ़े
84 करोड़ आत्माएँ
भेदती थीं
धरती का सीना
अपनी पदचापों से
आज
ये राह सुनसान है
जीवन की
कल्पना से परे
गहन,बेचैन
और
भावशून्य निर्वात
भीतर ही भीतर
सिसक रहा है
इस राह पर
अक्सर दिखता है
आसमान मे
चमकता चाँद
बादलों से
अठखेलियाँ करता चाँद
बेढब बेडौल
मगर
मुसकुराता सा चाँद-
इस राह को
ऐसे देखता है
जैसे उसे
पता हो सब
भूत और
भविष्य का विधान
इस राह पर
निर्जन राह पर
टिकी हुई है
मेरी दृष्टि
समय के उस पार से
चाँद के उस पार से
तिलिस्मी
आकाश गंगा की
अनंत गहराइयों के
भीतर से
ताक रहा हूँ
एकटक
प्रकाश वर्षों के
इस पार
इस एक
अकेली
राह पर!
भीतर से
ReplyDeleteताक रहा हूँ
एकटक
प्रकाश वर्षों के
इस पार
इस एक
अकेली
राह पर!
सुन्दर अनुभूति!
सादर
sundar panktiyan
ReplyDeleteभीतर से
ReplyDeleteताक रहा हूँ
एकटक
प्रकाश वर्षों के
इस पार
इस एक
अकेली
राह पर!
और मैं जहां से देख रहा हूँ दिखती हैं अनुभूतियों की बारात और अंतर्द्वंद
आकाश गंगा की
ReplyDeleteअनंत गहराइयों के
भीतर से
ताक रहा हूँ
एकटक
प्रकाश वर्षों के
इस पार
इस एक
अकेली
राह पर!
....बेहतरीन प्रस्तुति....
बहुत सुन्दर यशवंत.............
ReplyDeleteतुम्हारा सर पूरी तरह फिर जाये तो कविता में क़यामत आ जाये...
:-)
बेहतरीन..
सस्नेह.
BAHUT KHOOB .BADHAI
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वाह!!!!!!बहुत सुंदर रचना,यशवंत जी,..अच्छी प्रस्तुति,..
ReplyDeleteMY RECENT POST...फुहार....: दो क्षणिकाऐ,...
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: मै तेरा घर बसाने आई हूँ...
बहुत सही |
ReplyDeleteआभार आपका ||
बेवजह नहीं उठते भाव... कुछ तो सम्बन्ध होता है इनका सच्चाई से, जैसे कहते हैं ना बिना आग के धुंआ नहीं उठता... चिंता है धरती भविष्य के लिए... सार्थक रचना... शुभकामनाएं
ReplyDeleteभीतर से
ReplyDeleteताक रहा हूँ
एकटक
प्रकाश वर्षों के
इस पार
इस एक
अकेली
राह पर!
वाह !! क्या बात है ... !!
very good!
ReplyDeleteअकेली राह और उस पर पसरा सन्नाटा .... कभी कभी जीवन से साम्य सा लगने लगता है ... गहन अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteबहुत कुछ कह गयी ये राह....... बहतरीन......
ReplyDeletebahut sundar !
ReplyDeleteमेल पर प्राप्त -
ReplyDeleteyashoda agrawal ✆
9:07 AM
to me
अत्यन्त सुन्दर व रम्य रचना
वाह: यशवन्त !सिरफिरे मन का कमाल बेमिसाल है..बहुत सुन्दर भावो को संजोया है...सुन्दर...
ReplyDeleteमुसकुराता सा चाँद-
ReplyDeleteइस राह को
ऐसे देखता है
जैसे उसे
पता हो सब
भूत और
भविष्य का विधान !
अनुभूति......
सुन्दर ....
बहुत सुन्दर...!!
आकाश गंगा की
ReplyDeleteअनंत गहराइयों के
भीतर से
ताक रहा हूँ
एकटक
प्रकाश वर्षों के
इस पार
इस एक
अकेली
राह पर!
.......जहांसे कभी मैं गुज़रा था........!
अनंत के यात्रियों का इस पार होना ही उन्हें उस पार की याद दिलाता है. सुंदर रचना.
ReplyDeleteसारगर्भित रचना..
ReplyDeletebahut sundar abhivyakti. man kabhi kabhi yoon hi bhatakate bhatakate bahut kuchh kah deta hai gahan aur gambheer............
ReplyDeleteएकटक
ReplyDeleteप्रकाश वर्षों के
इस पार..
loved that expression !!
sundar abhivyakti
ReplyDeletesundar gahan abhivyakti
ReplyDeleteभीतर से
ReplyDeleteताक रहा हूँ
एकटक
प्रकाश वर्षों के
इस पार
इस एक
अकेली
राह पर!
Wah...Gahan Bhav..
सारगर्भित विचार
ReplyDeleteभाव -भरी रचना हार्दिक बधाई .........
ReplyDeleteसमय के उस पार से
ReplyDeleteचाँद के उस पार से
तिलिस्मी
आकाश गंगा की
अनंत गहराइयों के
भीतर से
ताक रहा हूँ
bahut badhiyaa yashwant jee tinon kalon ko smahit krti rachana....
सुनते हैं इस अकेली राह पे हर किसी को कभी न कभी तो चलना ही होता है ...
ReplyDeleteलाजवाब अभिव्यक्ति ...
आकाश गंगा की,अनंत गहराइयों के ,
ReplyDeleteभीतर से ताक रहा हूँ , एकटक ,
प्रकाश वर्षों के इस पार ,
इस एक अकेली राह पर .... !
कभी लगते एक नटखट बच्चे से ,
कभी हो जाते इतने सयाने ,रच डालते ,
समझ से परे सारगर्भित-गूढ़ बातें .... !!
... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
ReplyDeleteसुंदर सारगर्भित रचना.....
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुती....
वाह बहुत खूब
ReplyDeleteइस राह पर
ReplyDeleteहुआ करती थी
कभी चहल पहल
तन का चोला ओढ़े
84 करोड़ आत्माएँ
भेदती थीं
धरती का सीना
अपनी पदचापों से
iss rah ki adbhut baat.
pyari rachna...