(Photo-from a facebook friend's wall ) |
न बहते झरने हैं
न नदियां है अब
न फूलों पे मँडराते भँवरे हैं
यूं सफेदी सा बहता पानी
अब सपना सा लगता है
कंक्रीट के जंगलों में
काला धुआँ सा उड़ता है
विकास है या विनाश
ये मुझको पता नहीं
पर सपनों की जन्नत से
कभी मन हटता नहीं
सोकर उठता हूँ अब
रोज़ देर से सवेरे
चहक कर दर पे मेरे
कोई पंछी जगाता ही नहीं।
©यशवन्त माथुर©
यह सपनों की कहाँ हकीकत की दुनिया है ...अब परिंदों की चहचहाहट कहाँ सुनाई देती है ...
ReplyDeleteयह सपनों की नहीं हकीकत की दुनिया है ... सटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteसटीक अभिव्यक्ति....
ReplyDeletevery beautiful ...
ReplyDeleteprabhavshali kavita
ReplyDeleteबहुत कुछ बदल गया माथुर जी,बहुत ही सार्थक प्रस्तुति.
ReplyDeleteअब तो ये सब सुंदर सपने सा जहाँ हो गया ...
ReplyDelete~God Bless!!!
महानगर में पंछियों की जगह कहाँ बनाते हैं इंसान ...
ReplyDeleteइंसान ने ही ये हाल किया है...अब भी सम्हाल लें तो काफी है...
ReplyDeleteसार्थक रचना.
सस्नेह
अनु
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteकंक्रीट के जंगल मे कहाँ ये संभव है ?
ReplyDeleteआज कि विडम्बना को दर्शाती यथार्थ परक रचना !
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने
ReplyDeletelatest postमेरे विचार मेरी अनुभूति: पिंजड़े की पंछी
अब तो यही कह सकते हैं मेरा सुन्दर सपना बीट गया
ReplyDeleteगुज़ारिश : ''..महाकुंभ..''
आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 23/02/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
ReplyDeleteसार्थक रचना
ReplyDeleteमाथुर जी इस समाज के बनाने में हमारा योगदान भी रहा है जो संकट हम ने खुद म़ोल लिया है उसे तो झेलना ही पड़ेगा
मेरी नई रचना
खुशबू
प्रेमविरह
आज के हालत पर सटीक प्रस्तुति..
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