बिकने के लिए सजा हूँ,उस दुकान की अलमारी में।
कभी भी अटता नहीं हूँ,खरीददार की दिहाड़ी में॥
कोई पूछता ही नहीं कभी,कि मेरा नाम क्या है।
उसे यह अहसास है कि, इस सज़ा का अंजाम क्या है॥
सोता हूँ रोज़ ही मैं, सफ़ेद चादर के भीतर।
लोग जुट जाते हैं मेरे, जनाजे की तैयारी मे॥
बिकने के लिए सजा हूँ,उस दुकान की अलमारी में।
कुछ नहीं पर नाम तो है,छपास की इस बीमारी में॥
~यशवन्त माथुर©
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बिकने के लिए सजा हूँ,उस दुकान की अलमारी में
ReplyDeleteलिखने वाले की सज़ा है,निपटना सीलन-दीमक-चूहे से
सुंदर व्यंग !!
शुभकामनायें !!
सोता हूँ रोज़ ही मैं, सफ़ेद चादर के भीतर।
ReplyDeleteलोग जुट जाते हैं मेरे, जनाजे की तैयारी मे॥
vaah lajawaab
सोता हूँ रोज़ ही मैं, सफ़ेद चादर के भीतर।
ReplyDeleteलोग जुट जाते हैं मेरे, जनाजे की तैयारी मे ..
बहुत खूब ... अपने पे ऐसा शेर कहना .. दिलवालों का ही काम हो सकता है यशवंत जी ..
बहुत उम्दा शेर ...
वाह: बौत बढ़िया..
ReplyDeleteवाह ..बहुत खूब
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