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खोजता फिर रहा गुलाबों को
रौनक यहाँ पे कहीं नहीं
बस ख्वाब लुभाते ख्वाबों को
कागज़ के पन्ने हैं फैले
कलम ढूंढती दवातों को
अब वो दौर है बीत रहा
कान सुनते खटरागों को
हर तरफ बस शोर ही शोर
दिन, रात और ठंडी भोर
देखूँ चाहे जिस भी ओर
कहीं न पाता पूरा ठौर
वेश बदलती मशीनों में
कैसे पहचानूँ इन्सानों को
काँटों से भरे बगीचों में
खोजता फिर रहा गुलाबों को ।
~यशवन्त माथुर©
वेश बदलती मशीनों में
ReplyDeleteकैसे पहचानूँ इन्सानों को
काँटों से भरे बगीचों में
खोजता फिर रहा गुलाबों को । बहुत खूब ...सुन्दर लिखा है .
कागज़ के पन्ने हैं फैले
ReplyDeleteकलम ढूंढती दवातों को
अब वो दौर है बीत रहा
कान सुनते खटरागों को
सच्ची बात !!
हार्दिक शुभकामनायें ......
इस मशीनी दौर में इंसान भी मशीनी हो गया है, संवेदनहीन... सार्थक रचना. शुभकामनायें
ReplyDeleteसुन्दर रचना |
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वेश बदलती मशीनों में
ReplyDeleteकैसे पहचानूँ इन्सानों को
काँटों से भरे बगीचों में
खोजता फिर रहा गुलाबों को । ...सार्थक रचना. शुभकामनायें.
बहुत सुंदर ...यही हाल है आजकल
ReplyDeleteगहन अभिवयक्ति......
ReplyDeleteबस ख्वाब लुभाते ख्वाबों को
ReplyDeleteसचमुच ऐसा कई बार महसूस किया
बस ख्वाब लुभाते ख्वाबों को
ReplyDeleteसचमुच ऐसा कई बार महसूस किया
वेश बदलती मशीनों में
ReplyDeleteकैसे पहचानूँ इन्सानों को
काँटों से भरे बगीचों में
खोजता फिर रहा गुलाबों को
बेहतरीन प्रस्तुति!!
पधारें बेटियाँ ...
गुलाब तो मिलेंगे काँटों में ही ..सीखना होगा काँटों से दामन बचाना हमें ही..
ReplyDeleteवेश बदलती मशीनों में
ReplyDeleteकैसे पहचानूँ इन्सानों को
काँटों से भरे बगीचों में
खोजता फिर रहा गुलाबों को ।
त्रासदी को बयान करती खुबसूरत रचना
वेश बदलती मशीनों में
ReplyDeleteकैसे पहचानूँ इन्सानों को
वाह बहुत बढ़िया
wahh,, kya khoob kaha hai ..
ReplyDeleteवेश बदलती मशीनों में
कैसे पहचानूँ इन्सानों को