डाल डाल पर कूदता बंदर
हँसाता कभी डराता बंदर
सबको करता घर के अंदर
जब तक बाहर रहता बंदर
नोंच नोंच कर पेड़ों से
कच्चे पके फल खाता बंदर
या घास के हरे लॉन को
बेदर्दी से उजाड़ता बंदर
अरे बाप रे कैसा मंज़र
हाथ से छीन कर खाता बंदर
डंडे गुलेल की फटकारों से
बड़ी मुश्किल से भागता बंदर
मैं भी था ऐसा ही बंदर
बचपन में उत्पाती था
मम्मी आती लेकर डंडा
ऊंचाई पर चड़ जाता था
अब तो शायद ही दिखता बंदर
जाने कहाँ पे छुप गया बंदर
मेरा भी बचपन बीत गया
शरारतें गयीं अब खोल के अंदर :)
~यशवन्त माथुर©
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अब भी जहां दिखता बंदर
ReplyDeleteवही मंज़र मचाता बंदर
बच्चे वैसे ही अच्छे लगते
धूम मचाते जैसे बंदर
हार्दिक शुभकामनायें ...
अब तो शायद ही दिखता बंदर
ReplyDeleteजाने कहाँ पे छुप गया बंदर
मेरा भी बचपन बीत गया
शरारतें गयीं अब खोल के अंदर
बचपन में जीता हमारा अंतर्मन
रोचक प्रस्तुति बधाई
ReplyDeleteहम हिंदी चिट्ठाकार हैं
.रोचक प्रस्तुति आभार रुखसार-ए-सत्ता ने तुम्हें बीमार किया है . आप भी दें अपना मत सूरज पंचोली दंड के भागी .नारी ब्लोगर्स के लिए एक नयी शुरुआत आप भी जुड़ें WOMAN ABOUT MAN क्या क़र्ज़ अदा कर पाओगे?
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteआखिर वो तो हमारे पूर्वज ही ठहरे. सुन्दर रचना यशवंत भाई.
ReplyDeleteयहाँ अभी भी आता बन्दर
ReplyDeleteसबको लेकर आता बन्दर
कभी गाय की पीठ पे चढ़ता
कुत्तों को कभी सताता बन्दर
कभी-कभी किचेन में घुसकर
पूरण पूरी ले जाता बन्दर... :)
सुन्दर रचना... शुभकामनायें
बहुत सुन्दर ! बचपन में तो हम सभी बन्दर की तरह ही उत्पात मचाते है !
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