फोटो साभार-Gregg Braden |
रूप अलग
पसंद अलग
नापसंद अलग
हो सकता है
वेश और परिवेश अलग
भाषा और देश अलग
जाति और धर्म अलग
फिर भी भीतर से
एक ही है
हमारा ढांचा
बिल्कुल
उसी साँचे की तरह
जिसमे रख कर
ढाला गया है
तन की मिट्टी को
स्त्री और पुरुष बना कर
जाने कितने रंग
और रूप बना कर ।
साँसों की अमानत
साथ में लिये
वक़्त की ज़मीं -
आसमां हाथ में लिये
जाने क्यूँ चलते चलते
रुक जाते हैं कदम
किस नशे में क्यूँ इतना
बहक जाते हैं हम।
कहीं गिराते हैं बम
कहीं छुरे चाकू चलाते हैं
बस ऐसे ही 'एक' के
अनेक हो जाते हैं ।
~यशवन्त यश©
सार्थक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - बुधवार - 11/09/2013 को
ReplyDeleteआजादी पर आत्मचिन्तन - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः16 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
किस नशे में क्यूँ इतना
ReplyDeleteबहक जाते हैं हम।
कहीं गिराते हैं बम
कहीं छुरे चाकू चलाते हैं
बहुत खूब....
इस सत्य का भान हो जाए हम सबको फिर कोई समस्या नहीं रहेगी...
ReplyDeleteगहरी सोच ,सुन्दर रचना
ReplyDeletelatest post: यादें
सच में ...पर कई कहाँ समझना चाहता है ...
ReplyDelete*कोई
ReplyDeleteएक में अनेक को देखना और अनेक में एक को देखना...यही तो देखना है
ReplyDeleteसब कुछ एक होते हुए भी कुछ मामले में हम अलग क्यों..... यही एक सवाल है......
ReplyDeleteएक में अनेक और अनेक में एक यही तो शाश्वत सत्य है..
ReplyDeleteखुबसूरत अभिवयक्ति...
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