हर सुबह से शाम
वो रोज़ गुज़रता है
गली गली घूमता है
हर घर के
सामने से
आवाज़ लगाते हुए
खरीदने को
फालतू रद्दी
लोहा लंगड़
टूटा प्लास्टिक
और
न जाने क्या क्या
सब कुछ
जो उसके
और हमारे
काम का नहीं।
वो
तोल कर
बटोर कर
समेट कर
सहेजता है
अपने ठेले में
और चल देता है
अगली राह
जहां कोई और होगा
जो खरीदेगा
उसका बिकाऊ माल।
अनेकों पड़ावों
से गुज़र कर
आखिरकार
वह रद्दी
वह कचरा
या तो बदल लेता है
रंग- रूप- आकार
या दफन हो जाता है
कहीं किसी
गुमनाम कब्र मे
हमेशा के लिये ।
पर क्या
कोई ऐसा भी
कबाड़ी वाला है..?
जो खरीदता हो
और
ठिकाने लगा देता हो
मन के एक कोने मे
न जाने कब से जमा
और दबा
रद्दी का ढेर ...
...वह ढेर
जिससे मुक्त होना
इतना भी आसान नहीं।
~यशवन्त यश©
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आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [09.09.2013]
ReplyDeleteचर्चामंच 1363 पर
कृपया पधार कर अनुग्रहित करें
सादर
सरिता भाटिया
सही कहा इस ढेर से मुक्ति आसान नहीं ….
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
सही कहा ...बहुत सुन्दर लिखा आपने
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteकृपया आप सभी मित्र यहाँ भी पधारें, जाग उठा है हिन्दुस्तान ... - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः15
बहुत सही कहा.. गणेश चतुर्थी कीआप को बहुत बहुत शुभकामनाएं!
ReplyDeleteमन के एक कोने मे
ReplyDeleteन जाने कब से जमा
और दबा
रद्दी का ढेर ...
...वह ढेर
जिससे मुक्त होना
इतना भी आसान नहीं।
...सच कहा आपने मन के कबाड़ से मुक्ति आसान नहीं ..
बहुत बढ़िया
सामाजिक एकाकार का उत्सव गणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें
मन के कचरे को कहां फेंकें ... वो यादें बन के सताते हैं ...
ReplyDeleteबेकार चीज़ों का एक बहुत बड़ा खरीदार है - अगर समर्पित कर सके उसे कोई तो उसे सब स्वीकार है !
ReplyDeleteकबाड़ वाला कबाड़ी
ReplyDeleteहाँ,है वह कबाड़ी जो मन का कबाड़ ख़ुशी ख़ुशी ले जाता है..वही तो रहता है दिल की गहराइयों में..कहीं जाना भी नहीं पड़ता..
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