फेसबुक पर कभी कभी कुछ इतनी बेहतरीन और मर्मस्पर्शी रचनाएँ पढ़ने को मिल जाती हैं कि उन्हें साझा किये बिना मन नहीं मानता।आज पेश है साभार मगर बिना औपचारिक अनुमति, हनुमंत शर्मा जी की यह बेहतरीन लघु कथा जो सरल भाषा शैली में मर्मस्पर्शी शब्द चित्र प्रस्तुत करती है।
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“साहब मेरी रिहाई खारिज़ करा दो किसी तरह ....” गिड़ागिड़ाते हुए उसने एक मुड़े हुए कागज़ की अर्जी पेश की |
ज़ेल की तीस साल की नौकरी में . यह पहला था जो रिहाई टालने के लिए लिखित में अर्ज़ी दे रहा था | ये पिछले तीन साल से चोरी की सजा काट रहा था | एकदम गऊ था पहली ही पेशी में जुर्म कबूल कर लिया
मैंने एक बार पूछा लिया था “तुम एक्सपायरी दवाइयां क्या करते ..वो तो ज़हर होती है ?”
‘साहब.. वो तो मेरी औरत बीमार थी ....सिस्टर उसे नीली पन्नी वाली दवा देती थी ..उस दिन सिस्टर कहा दवा खत्म हो गयी है ...जाकर खरीद लाओ ...और पर्ची थमा दी ...पैसे नहीं थे ...दूकान में वैसी दवा दिखी तो उठाकर भागा ..वो तो बाद में पता चला कि दवा दुकानदार के काम की नहीं थी इसलिए उसे बाहर छांट कर रखा था ...लेकिन साहब उस बेकार की दवा के लिए मुझे पकड़कर बहुत मारा... यदि काम की दवा होती तो शायद मार ही डालते |” उसने अपनी राम कहानी सुनायी |
मै फ्लेश बेक से बाहर निकला तो मेरा ध्यान मुड़े हुए कागज़ पर गया| मैंने मुड़े कागज़ को और मोड़कर ज़ेब में रखते हुए पूछा “वैसे तुम अपने घर जाना क्यों नहीं चाहते ?” |
‘ कौन सा घर साहब ....औरत तो तभी मर गयी थी .एक लड़की थी सो उसका पहले ही ब्याह कर दिया था ... . अभी पिछले महीने बाप चल बसा ... बाहर कौन है साहब .. यहाँ अन्दर भूख लगे तो खाना मिल जाता है और कभी साल छ: माह में बीमार हुए तो दवा भी ... बाहर निकला तो खाने के बगैर मर जाऊँगा और खाना मिल गया तो दवा बगैर ...” गिड़ागिड़ाते हुए उसने मेरे पाँव पकड लिए |
मै अचानक पत्थर की मूर्ती में बदल गया था |||||
~हनुमंत शर्मा ©
(pic Sven Dalberg, courtesy google )
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“साहब मेरी रिहाई खारिज़ करा दो किसी तरह ....” गिड़ागिड़ाते हुए उसने एक मुड़े हुए कागज़ की अर्जी पेश की |
ज़ेल की तीस साल की नौकरी में . यह पहला था जो रिहाई टालने के लिए लिखित में अर्ज़ी दे रहा था | ये पिछले तीन साल से चोरी की सजा काट रहा था | एकदम गऊ था पहली ही पेशी में जुर्म कबूल कर लिया
मैंने एक बार पूछा लिया था “तुम एक्सपायरी दवाइयां क्या करते ..वो तो ज़हर होती है ?”
‘साहब.. वो तो मेरी औरत बीमार थी ....सिस्टर उसे नीली पन्नी वाली दवा देती थी ..उस दिन सिस्टर कहा दवा खत्म हो गयी है ...जाकर खरीद लाओ ...और पर्ची थमा दी ...पैसे नहीं थे ...दूकान में वैसी दवा दिखी तो उठाकर भागा ..वो तो बाद में पता चला कि दवा दुकानदार के काम की नहीं थी इसलिए उसे बाहर छांट कर रखा था ...लेकिन साहब उस बेकार की दवा के लिए मुझे पकड़कर बहुत मारा... यदि काम की दवा होती तो शायद मार ही डालते |” उसने अपनी राम कहानी सुनायी |
मै फ्लेश बेक से बाहर निकला तो मेरा ध्यान मुड़े हुए कागज़ पर गया| मैंने मुड़े कागज़ को और मोड़कर ज़ेब में रखते हुए पूछा “वैसे तुम अपने घर जाना क्यों नहीं चाहते ?” |
‘ कौन सा घर साहब ....औरत तो तभी मर गयी थी .एक लड़की थी सो उसका पहले ही ब्याह कर दिया था ... . अभी पिछले महीने बाप चल बसा ... बाहर कौन है साहब .. यहाँ अन्दर भूख लगे तो खाना मिल जाता है और कभी साल छ: माह में बीमार हुए तो दवा भी ... बाहर निकला तो खाने के बगैर मर जाऊँगा और खाना मिल गया तो दवा बगैर ...” गिड़ागिड़ाते हुए उसने मेरे पाँव पकड लिए |
मै अचानक पत्थर की मूर्ती में बदल गया था |||||
~हनुमंत शर्मा ©
(pic Sven Dalberg, courtesy google )
अत्यंत मर्मस्पर्शी कहानी !
ReplyDeleteबहुत मार्मिक और हृदय स्पर्शी..
ReplyDeleteसच मं बहुत ही मार्मिक स्थिति..
ReplyDeleteदिल को छूती हुयी लघु कथा ...
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