वो
जो खेतों में हल चला कर
गतिमान करता है
जीवन के चक्र को
वो
जो अपने पसीने की हर बूंद से
सींचता है
अपने भीतर के सब्र को
वो
जिसके होंठों की मुस्कुराहट
उपजाती है
हमारे कल की खुशियों को
वो
जिसके खेतों की कपास के धागे
सूत बन कर ढल जाते हैं
रंग बिरंगी पोशाकों में
वो
जिसे फिर भी
मयस्सर होती है
सिर्फ गुमनामी
वो
जो
सबको
सबका हक दे कर भी
अपने हक के लिये
राजधानी की सड़कों पर
गिरते-पड़ते
शैतानी पत्थरों के वार से
बचते बचाते
शहीद होकर
कंक्रीट की सड़कों पर
अपने खून से
बना देता है
प्रश्नचिह्न
वो
कोई और नहीं
धरती के अंक से लग कर
बिना कोई भेद किये
सबकी एकता का सूत्र है वो
भूमि पुत्र है वो।
05122020
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-12-2020) को "उलूक बेवकूफ नहीं है" (चर्चा अंक- 3907) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
सटीक और सुन्दर सृजन
ReplyDelete
ReplyDeleteवो
कोई और नहीं
धरती के अंक से लग कर
बिना कोई भेद किये
सबकी एकता का सूत्र है वो
भूमि पुत्र है वो।
बहुत सुंदर।
यथार्थ को शब्दों के माध्यम से चरितार्थ करती कविता ।उत्कृष्ट रचना।
ReplyDeleteयथार्थ को शब्दों के माध्यम से चरितार्थ करती कविता ।उत्कृष्ट रचना।
ReplyDeleteवाह! बेहतर सृजन सराहनीय सर।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteसही कहा कृषक भूमि पुत्र है.....
ReplyDeleteकृषक के चरित्रार्थ को व्यक्त करती लाजवाब रचना
वाह!!!!
भूमि पुत्र को आज खेतों में होना चाहिए था पर पता नहीं कौन सी विवशता उसे सड़कों पर ले आयी है, भावपूर्ण रचना !
ReplyDeleteकिसान की विवशता तो स्पष्ट है। सरकार की गलत नीतियों की वजह से ही आज उसे सड़क पर उतरना पड़ा है।
Deleteकृषकों के प्रति अत्यंत सशक्त रचना
ReplyDeleteसाधुवाद 💐
भूमि-पुत्र के सदा के यथार्थ एवं आज की व्यथा, दोनों को ही हृदयस्पर्शी ढंग से रूपायित कर दिया है यशवंत जी आपने ।
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग ग़ज़लयात्रा पर आपका स्वागत है। इसमें आप भी शामिल हैं-
ReplyDeletehttp://ghazalyatra.blogspot.com/2020/12/blog-post.html?m=1
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- डॉ. वर्षा सिंह