उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के भूतपूर्व सदस्य एवं लखनऊ विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉक्टर कृपा शंकर माथुर साहब मेरे पिता जी के मामा जी थे और उनका विशेष स्नेह सदा ही पिता जी पर रहा। 48 वर्ष की आयु में 21 सितंबर 1977 को उनके निधन का समाचार एवं चांदी के वर्क पर आधारित उनकी लेखमाला (जो अपूर्ण रह गई) का क्रमिक भाग 22 सितंबर 1977 के नवजीवन में प्रकाशित हुआ था, जो संग्रह की दृष्टि से यहाँ प्रस्तुत है-
चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट
'नवजीवन’ के विशेष अनुरोध पर डाक्टर कृपा शंकर माथुर ने लखनऊ की दस्तकारियों के संबंध में ये लेख लिखना स्वीकार किया था। यह लेख माला अभी अधूरी है, डाक्टर माथुर की मृत्यु के कारणवश अधूरी ही रह जाएगी, यह लेख इस शृंखला में अंतिम है।
अगर आपसे पूछा जाए कि आप सोना या चांदी खाना पसंद करेंगे, तो शायद आप इसे मजाक समझें लेकिन लखनऊ में और उत्तर भारत के अधिकांश बड़े शहरों में कम से कम चांदी वर्क के रूप में काफी खाई जाती है। हमारे मुअज़्जिज मेहमान युरोपियन और अमरीकन अक्सर मिठाई या पलाव पर लगे वर्क को हटाकर ही खाना पसंद करते हैं, लेकिन हम हिन्दुस्तानी चांदी के वर्क को बड़े शौक से खाते हैं।
चांदी के वर्क का इस्तेमाल दो वजहों से किया जाता है। एक तो खाने की सजावट के लिये और दूसरे ताकत के लिये। मरीजों को फल के मुरब्बे के साथ चांदी का वर्क अक्सर हकीम लोग खाने को बताते हैं।
(दैनिक 'नवजीवन'-22 सितंबर 1977, पृष्ठ-04) |
लखनऊ के बाजारों में मिठाई अगर बगैर चांदी के वर्क के बने तो बेचने वाला और खरीदने वाला दोनों देहाती कहे जाएंगे। त्योहार और खासकर ईद के मुबारक मौके पर शीरीनी और सिवई की सजावट चांदी के वर्क से कि जाती है। शादी ब्याह के मौके पर नारियल, सुपारी और बताशे को भी चांदी के वर्क से मढ़ा जाता है। यह देखने में भी अच्छा लगता है और शुभ भी माना जाता है। क्योंकि चांदी हिंदुस्तान के सभी बाशिंदों में पवित्र और शुभ मानी जाती है।
लखनऊ के पुराने शहर में चांदी के वर्क बनाने के काम में चार सौ के करीब कारीगर लगे हैं। यह ज्यादातर मुसलमान हैं, जो चौक और उसके आस-पास की गलियों में छोटी-छोटी सीलन भरी अंधेरी दुकानों में दिन भर बैठे हुए वर्क कूटते रहते हैं।ठक-ठक की आवाज से जो पत्थर की निहाई पर लोहे की हथौड़ी से कूटने पर पैदा होती है, गलियाँ गूँजती रहती हैं।
इन्हीं में से एक कारीगर मोहम्मद आरिफ़ से हमने बातचीत की। इनके घर से पाँच-छह पुश्तों से वर्क बनाने का काम होता है। चांदी के आधा इंच वर्गाकार टुकड़ों को एक झिल्ली के खोल में रखकर पत्थर की निहाई पर और लोहे की हथौड़ी से कूटकर वर्क तैयार करते हैं। डेढ़ घंटे में कोई डेढ़ सौ वर्कों की गड्डी तैयार हो जाती है, लेकिन यह काम हर किसी के बस का नहीं है। हथौड़ी चलाना भी एक कला है और इसके सीखने में एक साल से कुछ अधिक समय लग जाता है। इसकी विशेषता यह है कि वर्क हर तरफ बराबर से पतला हो,चौकोर हो,और बीच से फटे नहीं।
वर्क बनाने वाले कारीगर को रोजी तो कोई खास नहीं मिलती, पर यह जरूर है कि न तो कारीगर और न ही उसका बनाया हुआ सामान बेकार रहता है। मार्केट सर्वे से पता चलता है कि चांदी के वर्क की खपत बढ़ गई है और अब यह माल देहातों में भी इस्तेमाल में आने लगा है।
ठक…. ठक…. ठक। घड़ी की सुई जैसी नियमितता से हथौड़ी गिरती है और करीब डेढ़ घंटे में 150 वर्क तैयार।
प्रस्तुति:यशवन्त माथुर
संकलन:श्री विजय राज बली माथुर
अत्यंत उपयोगी आलेख है यह यशवंत जी । और यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि डॉक्टर कृपा शंकर माथुर दिवंगत हो गए तथा लेखमाला को पूर्ण न कर सके । आभार आपके पिता जी का तथा आपका इस मूल्यवान ज्ञान को संभालकर रखने तथा साझा करने के लिए ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सर🙏
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-03-2021) को "देख तमाशा होली का" (चर्चा अंक-4019) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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रंगों के महापर्व होली और विश्व रंग मंच दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत धन्यवाद सर 🙏
Deleteज्ञानवर्धक और अनमोल धरोहर भी है यह आलेख।
ReplyDeleteआपने बहुत मेहनत और लगन से लेख टाइप किया है निःसंदेह आपको बहुत बधाई।
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चाँदी के वरक का उपयोग आजकल मिठाई की दुकानों धड़ल्ले से होता है किसी भी त्योहार पर,
नकली और असली वरक में अंतर नहीं समझ पाने के कारण ग्राहक संदेह की दृष्टि से भी देखते हैं।
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सादर।
जी हाँ सही कहा आपने। समय के बदलाव के साथ बेईमान लोग हर जगह अपनी पैठ बनाते जा रहे हैं और इसी कारण आज के दौर में असली-नकली का संदेह होना स्वाभाविक ही है।
Deleteबहुत ही जानकारीपूर्ण आलेख प्रस्तुत करने के लिए असंख्य धन्यवाद, चांदी के वर्क़, मिष्ठान्न की मिठास को द्विगुणित कर जाते हैं वर्क़ बनने की प्रक्रिया बहुत ही श्रमसाध्य होती है तभी तो सुंदरता निखर कर आती है दरअसल वरक़ या वर्क़ शब्द अरबी से निकला है जिसका अर्थ पत्ता या पत्ती होता है - - होली की शुभकामनाओं सह।
ReplyDeleteजी हाँ सर! अफसोस इस कठिन श्रम का उचित प्रतिफल इन कारीगरों को नहीं मिलता।
Deleteबहुत ही उपयोगी लेख, उससे भी ज्यादा,इस लेखन की हिफ़ाज़त,सच लखनऊ में बिना चांदी वर्क के आज भी बहुत सी मिठाईयां सूनी लगती हैं,ऐसे मेहनतकश लोगो को हार्दिक नमन। आपको और आपके पिताजी को भी मेरा नमन,आपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएं एवम बधाई ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद जिज्ञासा जी!
Deleteऐसे बहुत से पुराने आलेख कतरनों के रूप में पापा ने अब तक सुरक्षित रखे हुए हैं, जिन्हें डिजिटल फॉर्मेट में प्रस्तुत करके स्थायी करने का प्रयास रहेगा।
आपको भी सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएँ🙏
बहुत अच्छी जानकारी
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
Deleteसुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद🙏
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