वह चाहे तो होली को दीवाली,
दीवाली को होली बोल दे।
इतिहास की जिल्द बंधी किताब के,
सारे पन्ने खोल दे।
वह चाहे तो भाषा के सारे मानक गिराकर,
खुद को खुद ही के तराजू पर तोल दे।
उसका सपना आधुनिक को प्राचीन बनाकर,
अंगीठियों के दौर में पहुंचाके सब धुंए में उड़ाना है।
वह जोड़ने की बात करता तो है, लेकिन,
टुकड़ों में बांटकर उसे दोस्तों का जहां बनाना है।
उसे नहीं मतलब कि सालों पहले जो बना तो क्यों बना,
मेहनत की जमा पूंजी कुतर्कों से बेचते जाना है।
और एक हम हैं कि बस दो रंगों में ही उलझ कर,
तय कर बैठे हैं कि उसी के जाल में फंसते ही जाना है।
-यशवन्त माथुर©
09032021
ये हुई क़लम की धार
ReplyDeleteबहुत ख़ूब
बस क़लम का ही सहारा है इस दौर में।
नई रचना
सादर धन्यवाद!
Deleteजवाब नहीं, वह जोड़ने की बात तो करता है, का
ReplyDeleteसादर धन्यवाद सर!
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसादर धन्यवाद!
Deleteसार्थक और उम्दा।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद सर!
Deleteसार्थक सन्दर्भ..
ReplyDeleteसादर धन्यवाद!
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसादर धन्यवाद!
Deleteबहुत सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद!
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसादर धन्यवाद!
Deleteसमय बदल रहा है और बदलते हुए समय के साथ जो नहीं बदलते वे पीछे रह जाते हैं
ReplyDeleteसादर धन्यवाद!
Deleteमैं तो आपकी इस कविता का मर्म समझ गया हूँ यशवन्त जी । बाकी पाठक भी समझे हैं या नहीं, कहना मुहाल है । बहरहाल, आपका एक-एक लफ़्ज़ सच है और सच के सिवा कुछ नहीं है ।
ReplyDeleteआपने बिल्कुल सही समझा सर! शायद और लोग नहीं समझे वरना इतनी भी टिप्पणियाँ नहीं आतीं :)
Deleteबहुत सुन्दर सर
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