मिले दवा न मिले दवा
वो गुरबत से दबा दबा
खुली छत के कमरे में
बंद पलकों में है दुआ
उसके बच्चे भूखे-प्यासे
माँ के आँसू पी-पी कर
पिता की ताला-बंदी में
रहना कठिन यूँ जी कर
ककहरा को भूल काल
अब क्या लिख लाया है
हर पन्ने पर एक हर्फ़ ही
कुछ समझ न आया है ।
-यशवन्त माथुर©
12052021
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-05-2021को चर्चा – 4,064 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
सबकुछ धुआँ धुआँ, जिंदगी क्या है समझ से परे होता जा रहा है आजकल
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसार्थक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteवर्तमान समय की विभीषिका को चन्द शब्दों में बयान कर दिया है, कभी तो अंत होगा इस आपदा का, इसी उम्मीद पर दुनिया जिए चली जाती है
ReplyDeleteसमसामयिक,मर्म स्पर्शी सृजन ।
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