मन
कोरे कागज़ की तरह
बिल्कुल खाली
और नीरस हो
तो कैसा हो?
शायद वैसा
जैसा जीवन की देहरी पर
पहला कदम रखते ही
किसी नवजात का होता है
या फिर
किसी निर्मोही आवरण में
कोई अपवाद हो
तो कैसा हो?
स्वाभाविक भेदों की तरह
बिखरे रह कर भी
गर शब्द निष्कपट हों
तो कैसा हो?
08052022
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१३-०५-२०२२ ) को
'भावनाएं'(चर्चा अंक-४४२९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण कविता का प्रभावशाली वाचन।
ReplyDeleteसादर।
जैसा जीवन की देहरी पर
ReplyDeleteपहला कदम रखते ही
किसी नवजात का होता है
मन अगर खाली हो तो....
सही कहा।
बहुत ही सुंदर सृजन
मर्म को छूती बहुत मार्मिक रचना प्रभावी वाचन।
ReplyDeleteसादर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर यशवंत भाई! आपका ये ब्लॉग पहली बार पढ़ा. पहले शायद कोई और ब्लॉग होता था
मधुरेश जी! ब्लॉग यही था, बस नाम और डोमेन बदल दिया है। पहले इसका नाम 'जो मेरा मन कहे' था।
Deleteबेहतरीन सृजन।
ReplyDeleteएक समय पश्चात मन कोरे कागज सा हो जाता है न गिला ना सिकवा न क्यों कैसे के प्रश्न।
सादर