चौराहों पर अक्सर दिखते
हाथ फैलाए भूखे नंगे
इंसान से इंसान ही कहता
दूर हटो! रे! भिखमंगे
फिर भी हैं कुछ
जो खिला पिला कर
महंगाई में दया दिखाएँ
आजादी का जश्न मनाएँ ?
बचपन के दो गजब नजारे
दिखते अक्सर आते जाते
एक - स्कूल में पढ़ते लिखते
दूसरे- कूड़ा बीन सकुचाएँ
आजादी का जश्न मनाएँ ?
खत्म हुआ सब रिश्ता नाता
कोरोना दूरी बनवाता
ऐसे में कैसे कुछ मीठा
जब हो सबकुछ
खट्टा तीता।
हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई
आपस में सब लड़ते जाएँ
आजादी का जश्न मनाएँ ?
निरपेक्षता के स्थायी भाव में
संविधान की आत्मा बसती
लेकिन 'नए भारत' में
बसा रहे हम कैसी बस्ती ?
मजदूर किसान की दुर्गति में
'अमृत' को कैसे 'वर्षाएँ '
आजादी का जश्न मनाएँ ?
माना हुए वर्ष पचहत्तर
सौ , दो सौ , और हजार भी होंगे
सब ऐसे चलता रहा तो
जाने कैसे कहां को होंगे
फिर क्यों सच को
भूल-भाल कर
आंख मूंद कर खुश हो जाएँ
आजादी का जश्न मनाएँ ?
-यशवन्त माथुर©
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१५-०८ -२०२२ ) को 'कहाँ नहीं है प्यार'(चर्चा अंक-४५२३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
'जाने कैसे कहां को होंगे '- लेकिन कोशिश तो हमें भी करना है.
ReplyDeleteआज़ादी का जश्न तो ज़रूर मनाएं लेकिन उसके साथ-साथ आज़ादी पर लगे साम्प्रदायिकता, जातिवाद, वंशवाद और भ्रष्टाचार के कलंक मिटाने की भरपूर कोशिश भी करें.
ReplyDeleteकविता के माध्यम से , आजाद भारत के विभिन्न चित्र पेश कर के सार्थक लेखन का परिचय दिया है । हार्दिक शुभकामनाएं ।
ReplyDelete- बीजेन्द्र जैमिनी
पानीपत - हरियाणा
आपके विचार सही हैं यशवन्त जी। ठीक इसी अवसर पर एक मुस्लिम अबला के साथ दुराचार करने एवं उसके परिवार की हत्या करने वालों को सरकार ने आज़ादी का अमृत दे दिया है। अब चूंकि आयोजन (या प्रायोजन) सरकारी है, अतः सरकार से तो दबे-कुचले, दीन-हीन लोगों को यही प्राप्त होगा। सरकार द्वारा भगवान के प्रसाद की भांति वितरित किया जा रहा अमृत किनके लिए है, सबको मालूम है लेकिन बोलना मना है। सत्ता के ख़ौफ़ में मनाया जा रहा है आज़ादी का अमृत महोत्सव।
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