लगता है
जैसे इस मतलबी दुनिया में
अपने भूत
और भविष्य को भूल कर
सिर्फ वर्तमान को ढो रहे हैं
गहरी नींद के आगोश में
हम सब सो रहे हैं।
नहीं मतलब इससे
कि क्या हो रहा है-
क्या नहीं
सिरहाने तकिये में दबे
सपने खो रहे हैं
गहरी नींद के आगोश में
हम सब सो रहे हैं।
यह और बात है
कि दिन
भले शवाब पर हो
निहत्थे दरख्त भी
हर सू रो रहे हैं
गहरी नींद के आगोश में
हम सब सो रहे हैं।
कहीं बेकारी-भूख
औ मुफलिसी के
इस अंधे दौर में
बांधे आँखों पे पट्टी
क्या नींव में बो रहे हैं?
गहरी नींद के आगोश में
हम सब सो रहे हैं।
-यशवन्त माथुर©
15 मार्च 2024
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सही है, पर अब जागने का वक्त आ गया है
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteसच ही है, एक तंद्रा में जिए जा रहे हैं लोग !
ReplyDeleteसटीक
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह, भावपूर्ण
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
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