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08 March 2015

ना आयेगी वो सहर....महिला दिवस पर शिल्पा भारतीय जी का आलेख

स्त्री विमर्श पर शिल्पा भारतीय जी का यह आलेख कुछ समय पहले जागरण जंक्शन पर देखा था। 
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर इसे अपने पाठकों हेतु और सहेजने की दृष्टि से इस ब्लॉग पर साभार प्रस्तुत  कर रहा हूँ। 

किसी भी समाज और परिवार का दर्पण है स्त्री और उसके बिना समाज का अध्ययन  अधूरा है..यही कारण है कि हर युग,परिस्थिति एवं परिवेश में स्त्री स्वरुप का अध्ययन किया गया ..यदि वक्त के आईने में स्त्री स्वरुप का अध्ययन करे तो नारी स्वरुप की सबसे बड़ी विडम्बना यही रही कि कभी तो उसे देवी कहकर उससे जनकल्याण की अपेक्षा की गयी तो कभी जुए,शराब,पशु और शूद्र की श्रेणी में रखकर उसे प्रताड़ित करने का अधिकार पुरुषों को दे दिया गया. ..परन्तु इस उच्चतर और निम्नतर अवस्थाओं से परे एक व्यक्ति के रूप में उसके मानवीय स्वरुप की हमेशा उपेक्षा की जाती रही..कमोबेश यह मानसिकता आज भी समाज के एक बड़े वर्ग में यथावत बनी हुयी है जहाँ स्त्री को  माँ,बेटी,पत्नी रूप में उसके त्याग-समर्पण की प्रशंसा मिलती है परन्तु उससे इतर जब एक स्त्री एक व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान बनाने निकलती है तो उसे समाज से मिलती है उपेक्षा..शोषण ..

जब ईश्वर ने  श्रृष्टि की रचना की तो उसने धरती पर स्त्री और पुरुष को समानुपात में अवतरित किया जिसका उल्लेख दुनिया के सभी प्रमुख धार्मिक ग्रंथो में किया गया चाहे वो मनु-श्रध्दा के रूप में हो चाहे आदम और हौव्वा या एडम और इव जो स्त्री पुरुष की समानता को इंगित करता है इस श्रृष्टि के निर्माण में दोनों ही बराबर के सहयोगी है और स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे के समकक्ष एवं संपूरक है और यह संकल्पना शिव के अर्धनारीश्वर रूप में भी परिलक्षित हुयी है..यदि स्त्री पुरुष की की अर्धांगिनी है तो इस नाते पुरुष भी स्त्री का अर्धांग हुआ अत: जितना उत्तरदायित्व स्त्री का अपने परिवार एवं समाज के प्रति है उतना ही पुरुष का भी और इसी अनुपात में सम्मान के भी दोनों अधिकारी हुए परन्तु विडम्बना यही है स्त्रियां जिन्होंने अपने परिवार तथा समाज के विकास के लिये वस्तुत: स्वयं को बलिदान कर अपने उत्तरदायित्वो का बखूबी निर्वहन किया उन्हें उस अनुपात में वो सम्मान ना मिला जिसकी वो अधिकारी है अपितु समय के साथ समाज में उनकी संख्या और स्थिति दोनों ही नीचे गिरती गयी और आजादी के पश्चात भी योजनाबद्ध विकास के साठ दशकों के बाद भी उन्हें सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था में यथोचित स्थान और अपनी पूर्ण क्षमता दिखाने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ..समाज,शासन-प्रशासन में उसकी रूचि,इच्छाओं एवं भावनाओ का ध्यान एक अधिकार के रूप में कम एक कृपा के रूप में अधिक रखा गया..


समाज में महिलाओं की स्थिति समाज की प्रगति का सूचक होती है और समय-समय पर भिन्न-भिन्न समाजो में इस स्थिति में परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है जहाँ तक बात  वैदिक काल की है उस काल में महिलाओं ने जिस स्वतंत्रता एवं समानता का सोपान किया उससे आज की आधुनिक नारी भी वंचित है वैदिक युग में स्त्रियों का समाज में वही स्थान था जो देवमंडली में अर्थात स्त्री पुरुष के समकक्ष थी उसे सभी प्रकार के अधिकार प्राप्त थे और परवरिश एवं शैक्षिणिक दृष्टिकोण से दोनों में कोई अन्तर ना था और ऋग्वेद में घोषा,लोपामुद्रा,सिकता,अपाला,नियवारी एवं विश्वरा जैसी विदुषी कन्याओं का जिक्र मिलता है जो ऋषि उपाधि से विभूषित थी और जिन्होंने ऋचाओं की रचना करके अपनी बौद्धिक पराकाष्ठा को निस्संदेह स्थापित किया था..परन्तु इन समानताओं के बावजूद संपत्ति का अधिकार सशर्त  करके उसके अधिकारों को सीमांकित कर दिया जिसके पीछे तर्क यह था कि युद्धरत समाज में कोमलांगी  स्त्री संपत्ति की रक्षा के लिये असमर्थ है परन्तु यह स्त्रीलिंग के विषय में एक पूर्वाग्रह ही था जहाँ स्त्री को शारीरिक और भावनात्मक रूप से अबला कहकर परिभाषित कर उसपर कई तरह की  वर्जनाये लाद दी और कई क्षेत्रो में उसके प्रवेश को वर्जित कर दिया गया..वरना कौन भूल सकता रजिया सुल्ताना..खूब लड़ी मर्दानी झाँसी वाली रानी को और स्वतंत्रता संग्राम में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ने वाली वीरांगनाओ को और वर्तमान समय में सारे पूर्वाग्रहों एवं वर्जनाओं को तोड़ते हुए स्त्रियां उन क्षेत्रो में अपनी क्षमताओं का लोहा मनवाया है जहाँ उन्हें अबला कह कर सदियों प्रवेश से वंचित रखा गया..


वैदिक काल के पश्चात स्त्रियों की स्थिति में गिरावट का दौर प्रारम्भ हुआ और इसका सबसे प्रमुख कारण था शिक्षा का पेशेवर रूप धारण कर लेना जिसका  प्रभाव यह हुआ कि स्त्री शिक्षा के अवसर से वंचित हो गयी और शिक्षा से वंचित स्त्री का जीवन अंधकार में समा गया अब वह जीवन निर्वहन के लिये पुरुष पर परवलाम्बित हो गयी और जैसे ही वह पुरुष पर अवलंबित हुयी समाज के व्यवस्था कारों ने कतिपय ग्रंथो के माध्यम से पुरुषों पर महिलाओं की पूर्ण निर्भरता और अधीनता की पुरजोर वकालत कर ना केवल उसे परतंत्रता की बेड़ियों में जकड दिया अपितु सतिव्रत जैसे अमानवीय परम्पराओं का विधान कर पुरुष रुपी पति परमेश्वर पर कुर्बान करने से भी गुरेज नहीं किया..परन्तु समाज में स्त्रियों की गिरती स्थिति और उससे उत्पन्न विसंगतियों ने समय के साथ कई अन्य व्यव्स्थाकारों की मान्यताओं में परिवर्तन लाने को विवश किया और यही कारण है कि प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों में हमे स्त्री के बहु रूप दिखाई पड़ते है जहाँ एक ओर उसकी तुलना “जुए,शराब,पशु एवं शूद्र” से कर उसे प्रताड़ित करने का वैधानिक अधिकार प्रदान किया गया वही दूसरी ओर “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता” कह कर उसे देवी का स्वरुप दे दिया गया मध्यकाल में भी समाज के अधिकांश वर्गों में स्त्रियां शिक्षा के अधिकार से वंचित रही और सामाजिक,राजनीतिक एवं आर्थिक अधिकारों के आभाव की स्थिति यथावत बनी रही..सल्तनत काल में रजिया एक उदाहरण है स्त्री के प्रत्यक्ष राजनीतिक शासन का हालाँकि उसे भी अमीरों की महत्वकांक्षाओ एवं स्त्री होने की कीमत चुकानी पड़ी..इससे इतर मध्यकाल में भी वह चहारदीवारी में कैद पुरुषों के नियंत्रण में एक उपभोग की वस्तु ही रही..और अंग्रेजों के आगमन के पूर्व तक समाज में बाल विवाह,पर्दाप्रथा ,सती प्रथा और देवदासी जैसी कुप्रथाए प्रचलन में थी और स्त्रियों का हर प्रकार से शोषण किया जाता रहा जो समाज की प्रगति के प्रतिकूल थी..उन्नीसिवी शताब्दी के धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलनो ने समाज में व्याप्त इन कुप्रथाओं को अपना निशाना बनाया राजाराम मोहन राय, केशव चन्द्र सेन के प्रयासों से क्रमश: सती प्रथा और बालविवाह प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाया गया वही ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयासों से विधवा पुनर्विवाह को मान्यता मिली तथा इस प्राचीन अवधारणा कि स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार नहीं है  को भी दूर किया गया और परिणाम स्वरुप इस शिक्षा की लौ से स्त्रियों ने ना सिर्फ अपने जीवन के अंधकार को दूर किया अपितु धरती से लेकर अंतरिक्ष तक आज हर क्षेत्र में नित नये कीर्तिमान गढ़ कर देश का नाम रोशन कर रही  है..परन्तु दुखद प्रसंग है कि जहां स्त्रियां अंतरिक्ष तक में अपने कदम रख अपनी विद्वता अपनी शक्ति का लोहा  मनवा चुकी है वही समाज के एक बहुत बड़े वर्ग का नजरिया उसके विषय में आज भी यथावत है और सबसे दुखद बात है कि पढा लिखा वर्ग भी शामिल है शायद यही वजह है कि स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार शोषण रुकने का नाम नहीं ले रहा. घर,सड़क,दफ्तर,कोर्ट,पोलिस स्टेशन,अस्पताल,प्राइमरी स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षण संस्थानों तक टैक्सी,ट्रेन,बस हर जगह विभिन्न तरह से विभिन्न रूपों में शोषण की शिकार हो रही है महिलाये और विडम्बना ये है कि समाज का नजरिया तो देखिये इस तरह के मामलो में अपराधी को दंड देने के बजाए पीड़ित को ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है..विडम्बना ही है  कि कही उच्च जाति के लड़के से प्रेम या विवाह करने पर स्त्री को सरेआम निर्वस्त्र करके घुमाया जाता है  या उसके साथ सामूहिक बलात्कर करने पत्थर मार मार कर उसकी जान लेने जैसा अमानवीय कृत से परिपूर्ण  आदेश दिया जाता है पंचायतो द्वारा  और कही उच्च जाति के लोगो के द्वारा उसी  नारी की अस्मत लूटने जैसे घृणित अपराध करने वालो के विषय सब खामोश रह कर उनके अपराध को मौन स्वीकृति देते नजर आते है आखिर ये दोहरा मापदंड क्यों किसलिए? सदियाँ बदली पर सोच वही की वही.. कही कुछ बदला है तो समय के साथ शोषण का तरीका प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया तक में जो नारी के अंग-प्रत्यंग को उत्पाद बनाकर  उत्पादों के प्रचार के लिये परोसे जाने   वाले विज्ञापन..पुरुषों के अंडरवियर बनियान से लेकर परफयूम तक में उसे एक सहज प्राप्य वस्तु के रूप में प्रचारित किया जाता है फलां कम्पनी की अंडरवियर बनियान पहनिए लड़की आप पर फ़िदा..या इस कम्पनी के परफयूम का एक स्प्रे मारिये और लड़की कामांध होकर आप पर अपना सब कुछ लूटा बैठेगी…समझना मुश्किल होता है कि इनमे उत्पाद वस्तु कौन है?हद है आखिर इस तरह के विज्ञापनों के जरिये सन्देश क्या देना चाहते है क्या औचित्य है इनका..आजकल की फिल्मो और डेली सोप में जिस तरह से नारी को परोसा जा रहा उसने स्त्री जमात की छवि को बेहद नुकसान पहुचाया है…और तो और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर महिलाओ को लेकर द्विअर्थी जोक्स धडल्ले से शेयर किये  जाते है और उन पर चुटकियाँ ली जाती  है कुछ जोक्स में उन्हें महामूर्ख..लोभी..लड़ाकू तात्पर्य ये है कि हर तरह से पुरुषों की तुलना में हीन दर्शाया जाता है इस तरह के घटिया जोक्स पर चुटकियाँ लेने और उसे शेयर करने वाले शायद ये भूल जाते है कि उनकी माताये बहने भी उसी महिला जमात में आती है….ये कैसा नजरिया है समाज का जहाँ एक जीते-जागते इंसान को मजाक का विषय बना दिया जाता है वो महिलाये जो इस जीवन की धुरी है जो आपके सपनों को हकीकत के रंग देने के लिये कितनी सहजता से अपने सपनों को कुर्बान कर देती है जिनके त्याग और समर्पण की आधार पर आपका वजूद कायम है आज आपकी ही वजह से उसके सम्मान और अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे है…घरेलू हिंसा,बालविवाह,दहेज हत्या,तेजाब से डालकर जलाना ,छेड़खानी,बलात्कार,कन्या भ्रूण हत्या जैसे शोषण, अत्याचार और तमाम तरह की विसंगतियाँ झेलते हुए सदियों से अपने सम्मान और अस्तित्व की अंतहीन लड़ाई लड़ रही है..उसकी कोई चाह नहीं इस समाज से की उसे देवी बना कर पूजा जाये वो बस एक इंसान के रूप में ससम्मान जीवन जीने का अधिकार मागती है और कुछ नहीं…और कुछ नहीं..


नारी मन की व्यथा को सार्थक करती एक शायर की कुछ पंक्तियाँ-
”चलो दिल को थोडा बेक़रार करे
झूठा ही सही ऐतबार करे
हमे पता है कि ना आएगी कभी वो सहर
फिर भी कभी ना आने वाली उस सहर का इंतजार करे…!!”


--शिल्पा भारतीय “अभिव्यक्ति”©

साभार-जागरण जंक्शन

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