मुफ़्त में आते हैं कुछ लोग जहाजों में हँसते-हँसते।
मर जाते हैं यहाँ मजदूर रस्तों पर चलते-चलते।
सुबह-शाम जो भूख से कुलबुलाते हैं।
किराए बेशर्मी से उनसे मांगे जाते हैं।
ये दौर बदहाली का याद तब तक रखना होगा।
जब तक मशीन पर बटन उंगली से दबना होगा।
और क्या कहें कि कागजी मशवरे भी उड़ जाते हैं।
और उनके हर्फ़ सिर्फ आम को ही नजर आते हैं।
-यशवन्त माथुर ©
08/05/20
सार्थक सृजन
ReplyDeleteख़ुशी की बात है कि अब रेल का किराया नहीं लिया जा रहा, हाँ, जहाज का किराया लिया जा रहा है, फिर भी मजदूरों का दर्द कम होता नजर नहीं आता
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