ऐसा नही है कि मुझमें ताक़त नही थी,
किस्मत बदल पाने की।
हौसले के साथ आसमानों से,
आगे उड़ जाने की।
समझ न पाया मंजिलें
या समझ न थी समझाने की।
कुछ ग़लतियाँ मेरी ही थीं,
कुछ दूसरों के बदल जाने की।
मुकद्दर मेरा ठहरा हुआ है अभी,
वो आ जाए शायद एक दिन....
और हसरत पूरी हो उसे पा जाने की।
-राहुल श्रीवास्तव ©
लखनऊ ।
(रचनाकार एक प्रतिष्ठित कंपनी में वरिष्ठ अधिकारी हैं)
जब मंजिल की समझ आ जाएगी, समझाने की कला भी आ ही जाएगी, अपनी गलतियों को जो स्वीकार लेता है,उसे दूसरों के बदलने की फ़िक्र नहीं सताती ... और किस्मत उसके हाथ में होती है हर पल
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